नशा करे चेतना शून्य : सुधीर श्रीवास्तव
(कविता)
क्षण भर के आनंद के लिए
अपना ही नहीं अपने परिवार का भी
जीवन तो मत बिगाड़िए,
तन का नाश, मन का विनाश
चेतना को शून्य की ओर
तो मत ढकेलिए।
सबको पता है
आप उन्हें क्या क्या बतायेंगे?
मगर शून्य की ओर बढ़ती
अपनी ही चेतना में चैतन्यता
वापस भला कैसे लायेंगे?
ईश्वर का वास भी है
इस तन के मंदिर में,
अपवित्र रहकर भला
कैसे ईश्वर को रिझायेंगे
कैसे रामधुन और आरती गायेंगे,
नशे की लत में पड़कर
जब तन ही खोखला हो जायेगा
फिर भला अपनी चेतना को
कैसे सँभाल पायेंगे?
नशा करे चेतना शून्य
तब समझकर भी
क्या क्या बचा पायेंगे?
जब मंदिर ही खंडहर हो जाये
तब ईश्वर भला कैसे वहां
विराजमान रह पायेंगे?
- सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.
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नशा मुक्ति पर कविता