श्राद्ध पर पितरों को श्रद्धांजलि देते हुए माता-पिता के नाम- पिता को सिरहाने पाता हूँ : अनूपसहर
आज़ जो कुछ भी हूँ
तुमसे हूँ ऐ पिता,
धूप सा जब हुआ
छांव तुम हो गए।
डूबा जब भी यहां
जीवन मंझधार में,
बचाते रहे हमको
नाव तुम हो गए।
मै नज़र था तुम्हारी
फ़िक्रर था तुम्हारी,
कतरा कतरा था
लहू का
रग रग में तुम्हारी।
जितना समझा यहां
जाना खुद को कहीं,
ऐ पिता मुझमें तुम
घुलते गये,
मैं मिटता रहा और
तुम मिलते रहें।
पिता कोई भी हो
तपके जीता है,
हमेशा बच्चों की
खातिर आंसू पीता है।
जिएं जाता है
जिंदगी अपनी,
ऐसी वैसी,
लेकिन बच्चों को
बढ़ाता है।
लहू के ईंट गारो से
इमारत,
बच्चों की सजाता है।
पिता होता वहीं है जो
तपा होता है।
कभी खिलौना बन जाता,
कभी बिछौना बन जाता,
पिता बच्चों की खातिर
सीढ़ियां बन जाता,
भलें अपने लिए
बेड़ियां बन जाता।
पिता कितने बड़े होते,
हमेशा साथ में होते,
हमेशा समझ में होते,
इसे इक बेटा ही समझ पाता।
पिता दश दिशाएं होते,
पिता हरेक
मौसम की हवाएं होते।
नहीं आतीं जब
नींदें मुझको,
पिता को सिरहाने पाता हूं।
पिता को अपने
पंच तत्वों में पाता हूं।
पिता का दर्जा
सबसे ऊंचा है,
पिता का कर्जा
सबसे महंगा,
कैसे चुकता है ।
पिता अधरों की बोली है,
आंखों की दियाबाती ।
पिता जब याद आतें हैं
आतीं दिवाली है,
पिता की मुस्कान मुझमें है।
पिता को अपनी
इबादत में पाता हूं,
पिता को अक्सर
सिरहाने पाता हूं।
-अनूपसहर
रचनाकार
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पिता के नाम श्रृद्धांजलि