श्रीधर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखा गणेश चौथ उत्सव पर रचना
चौक चन्दा
हे गणेश गुण ज्ञान बढ़ाओ!
आज भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी है, गणेश उत्सव का दिवस। इसे वैनायकी या वरद चतुर्थी भी कहते हैं, लोक में चौक चन्दा भी इसी तिथि को कहा जाता है। यह भी प्रसिद्ध है कि इस तिथि को चांद देखने से कलंक लगता है, अतः देखने पर श्रीमद्भागवत के स्यमन्तक मणि की कथा श्रवण से चन्द्र दर्शन दोष मिट जाता है। कहीं कहीं यह भी प्रचलित है कि किसी के घर पर ढेला- पत्थर फेंकने पर उस घर का स्वामी गाली गलौज कर दे तब भी दोष दूर हो जाता है।
व्यक्ति अपने जीवन के विगत स्मृतियों का एक दुर्ग बना लेता है जिसमें अनेक वातायन होते हैं। वह इन्ही वातायन से उन स्मृतियों के महल में प्रवेश करता है जहाँ कभी वह विचरण किया है। आज चौक चन्दा की तिथि है, और मैं पहुँच गया हूँ अपने प्राथमिक शाला के उस काल में जब हम विद्यार्थी बड़े उत्साह से चौक चन्दा मनाते थे।
उन दिनों जब मैं प्राथमिक शाला में था, हर मास की परिवा तिथि को विद्यालय में गणेश जी का फोटो रख उनकी पूजा की जाती थी। सभी बच्चे अपने घर से प्रसाद के लिये थोड़ा- थोड़ा अरवा चावल और गुड़ लाते थे। अरवा चावल धो कर उसमें गुड़ मिला दिया जाता था जो पूजा के अंत में प्रसाद के रूप में मिलता था। पूजा में प्रार्थना की जाती थी उसका कुछ अंश है-
"हे गणेश गुण ज्ञान बढ़ाओ,
हम सबको तुम दास बनाओ।
हम सब विद्या के भूखे हैं,
विद्या विद्या ईश्वरी,
विद्या है परमेश्वरी।
जैसे मालिन गांठे फूल,
वैसे विद्या दो भरपूर।।" आदि- आदि। आगे स्मरण नहीं।
गणेश पूजा का यह क्रम चौक चन्दा को विशेष हो जाता। इसकी तैयारी हम कुछ दिन पूर्व से ही शुरू कर देते। एक एक हाथ लंबे लकड़ी के दो डंडे बनाये जाते, उन्हें रंग कर सजाया जाता जो वाद्य यंत्र का काम करता, और ठक- ठक की एक लय वद्ध ध्वनि निकालने का प्रयास चलता।
चौक चन्दा के दिन हम सभी विद्यार्थी उत्साह से भरे गणेश पूजन करते फिर अपने विद्यालय के बगल में एक बगीचे में इकठ्ठे हो गोल घेरा बना कर अपने वाद्य यंत्र लकड़ी के डंडे को एक लय में बजाते हुये चौक चन्दा गीत का अभ्यास करते। स्मृति में बसे उस गीत के टूटे फूटे अंश -
" भादो चौथ गणेश की आई,
जग में गणपति हुआ बधाई।
गाई- गाई सब देंय अशिष,
जिय बचवा लाख बरीस।
लाख लाख से दाख मंगाया,
दिल्ली से गलमोछ मंगाया।
दिल्ली में है आदम- चोर,
मार बहादुर- पहिला चोर।
पहिला चोर में आदम खान
आदम- खान चलावे तीर।
गोला - बाछा पानी पी।
राजा रानी बैठे थे
पोखरा खनाते थे।
पोखराके तीरे तीरे
इमली लगाते थे।
इमली के खोते में
नौ सौ अंडे रहते थे।
लोटा गिरा कुइयाँ में
मुड़ी पटको भुइयां में।
आदि आदि। इन्ही गीतों को गाते लकड़ी बजाते हम हर क्षात्र के घर जाते, उस बालक का आंख मूंदते और उसका अभिभावक कुछ गुरु दक्षिणा देते और टोली दूसरे घर को बढ़ जाती। बड़ा मजा आता जब हम कहते कि चार आना नहीं सवा रुपैया दीजिये।
विद्यालय से निकलते ही गाँव प्रतिष्ठित व्यक्ति शिव प्रसाद भैया का घर पड़ता। उस समय उनके बच्चे नहीं थे, पर वे उत्साह से सबको बुलाते और उस समय भी एक रुपैया देते थे।
चौक चन्दा का यह क्रम अब टूट गया। आज जब विचार करता हूँ तो मुझे इसके तार गुरुकुल परम्परा से जुड़े लगते हैं। जब राज्य पोषित विद्यालय नहीं थे या कम थे तब सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में गुरुकुल चलते थे और साल में एक दिन गुरु जी अपने शिष्यों के साथ निकलते थे और जो वार्षिक दक्षिणा मिलता उसी पर संतोष।
हे गणेश गुण ज्ञान बढ़ाओ।
।।श्रीधर।।
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