अनूप कुमार श्रीवास्तव द्वारा लिखी गजल- अपनी आदत में
गज़ल
अभी बहुत कुछ है
अपनी आदत में ,
ना जाने कबसे हो तुम
मेरी इबादत में ।
ये शाम और ये सूबह
ठहर गई कबसे ,
खुलें खुलें से हैं गेसू
किस क़यामत में ।
संभल संभल के तुम
चलना इस ज़माने में
कोई तो और नहीं हैं
तेरी नजाकत में ।
अब तुमको चाहूं तो
कह दूं ये बात भी कैसे ,
डरा डरा सा हूं शायद
इसी शराफ़त में ।
झुकी झुकी सी हैं पलकें,
छुपी खुमारी हैं ,
शराब जैसी हों तुम
किसी शरारत में ।
अभी बहुत कुछ है
अपनी आदत में ,
ना जाने कबसे हो
तुम मेरी इबादत में ।
ये शाम और ये सूबह
ठहर गई कबसे ,
खुलें खुलें से हैं गेसू
किस क़यामत में ।
संभल संभल के तुम
चलना इस ज़माने में
कोई तो और नहीं हैं
तेरी नजाकत में ।
अब तुमको चाहूं तो
कह दूं ये बात भी कैसे ,
डरा डरा सा हूं शायद
इसी शराफ़त में ।
झुकी झुकी सी हैं पलकें,
छुपी खुमारी हैं ,
शराब जैसी हों तुम
किसी शरारत में ।
अब कैसे चूम भी लूं
तुम्हारी यादों को,
गुलाब जैसी हों तुम
मेरी रिवायत में ।
महक रहा हूं अभी तक
तेरी सोहबत से ,
नई ग़ज़ल सी हो तुम
मेरी मोहब्बत में ।
ना जानता हूं ना
समझता हूं ये जादू ,
कोई तो शामिल हैं
इस नफासत में ।
तमाम उलझनें भी
दरकिनार हुई ,
मिलें हो जबसे सहर
मेरी मोहब्बत में ।
-अनूप कुमार श्रीवास्तव
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