आइये पढ़ते हैं मीरा भारती जी द्वारा लिखी रचना- महाप्रसाद ऋतुराज का

आइये पढ़ते हैं मीरा भारती जी द्वारा लिखी रचना- महाप्रसाद ऋतुराज का 


                ऋतुराज 

प्रातः यह उपवन कुछ ऐसा हर्षित  है,
ऋतुराज रूप को, प्रभु-नेह स्पर्शित हैं। 

निसर्ग में ऋतुपति,
जैसे, वाकपति-मन 
से ईश-भाव की,
पावन-अभिव्यक्ति। 

ऋतुओं में बसंत कह कर
जगदीश मानते,
ऋतुपति को, स्व-
प्रसाद-युक्त निजस्व। 

सदा नवल, निर्मल
ज्योतिर्मय,
ऋतुराज हैं,
उनके महामन का,
महाप्रसाद। 

ऋतुराज-निसर्ग के भाव में,
स्थित मनु  हैं  आत्मरूप। 

वेदना भी जैसे,
आनंद-रूप होती। 
सुख-दुःख के द्वंद्व से परे,
ऋतुपति-निसर्ग से,
मिलन है, इस मनु-जीवन 
का  अमर  उपहार। 

प्रकृति में नहीं है अहंकार कहीं, 
इसलिए है, सौंदर्य - श्रृंगार। 

हे मनुपुत्र,
ईश-भावी मन,
है वसंत का सत-आनंद। 

अहं के मूल से,
मन-आत्म को करें विलग। 

आशा-भक्ति के 
मिलन में है,
निसर्ग-आनंद
उत्सव-संयोग। 

 -मीरा भारती 
पुणे, महाराष्ट्र

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