आती है याद मां : अनूपसहर
जीने में जिंदगी का शौक नहीं रहा ,
भागती है ऐसे कुछ दिख नहीं रहा ।
तहजीबों अदब के भी दायरे से बनें
जो काम का नहीं ,उसे पूछना नहीं ।
नाउम्मीदी ,तीरगी , मात ही रहीं
सवाल करने का वक्त नहीं रहा ।
लोगों में बढ़ चढ़ कर ख्वाहिशें रहीं
पहली सी अब फरमाइशें नहीं रहीं ।
दीवारों के साये में जी रहे हैं लोग ,
गिरती इमारतों का फ़िक्रमंद नहीं ।
ये शोर किस तरफ से इधर आ रहा ,
बिक चुका ज़मीर वारिस नहीं रहा ।
आती हैं याद मां क्यूं मदर्स डे पर ,
जिसकी पूरी कायनात कर्जदार रही ।
रौशन हमेशा हैं मां आंखों में हमारी ,
काजल की वो डिब्बी ,भलें ना रहीं ।
माजीं की वो परछाइयां कैसे भुला दूं ,
कैसे छांव में रहा , तपाती खुद को रहीं
-अनूपसहर
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