पंचम दुर्गा है स्कंदमाता
ऊपर की दाहिनी भुजा में ,
खेल रहे हैं स्कंद कुमार ।
विकसित वात्सल्य पुष्प
सुंदर, दिव्य दंपति द्वार।
मां सतत मातृत्व भाविनी,
क्षेम -भाव से दुख निवारिणी।
भक्ति से विनम्र मनुज को,
देखती मां, रूप तेजस्विनी।
:
कण- कण में होकर व्याप्त,
भव- वत्सल भाव कल्याणी।
भक्त की विपदा करती नाश,
हुई, दयामय चरित्र निर्माणी ।
जिस भाव निरखें कुमार को,
उस भाव में धर्म अभय दानी।
हर चित्त वृत्ति को करें निर्मला,
शुभ चरित्र गुण से शृंगारिणी।
साहित्य मे,वरद-चेतन विभा
से, विचार - मन्त्र उच्चारिणी।
वागीश जिस विधा में लिखें,
युग नवाचार-मंत्र प्रबोधिनी।
चैत्र के परा-लग्न में,वह
दोष - मुक्ति संकल्पिनी।
जो जिस भाव ईश भजे,
उस भाव ध्यान उद्भासिनी।
- मीरा भारती,
पुणे, महाराष्ट्र।
Tags:
रचना