कमियां
छोटी छोटी कमियां,
अब पहाड़ बन गई।
खूबियां कभी गिनी न गई,
कमियां सारी झाड़ बन गई।
गिरे थे एक की नजर में,
आज जमाने ने गिरा दिया।
परायों को माना था अपना,
आज अपनों ने ही हरा दिया।
किससे क्या शिकायत करू?
आवाज़ हमारी छीन ले गए?
बोली न थी कभी,
आज बोलती ही बंद करा गए?
जीने का सहारा जिसे मानती थी,
आज वो दोस्ती ही खत्म करा गए?
विश्वास की मजबूत डोर को,
आज वो डोर ही चुरा ले गये।
ख्वाहिशों का मेला था दिल में
पल पल टूटते नजर आए।
जीने की वजह हर पल अपने ही बिखराने आए।
रचनाकार- प्रतिभा जैन
टीकमगढ़, मध्य प्रदेश
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