कोरोना में कवि हुए
जैसे हर इंसान
अपने कामों में हर वक़्त
मशरूफ़ रहता है,
ठीक वैसे हम भी अपने
भाग दौड़ भरी ज़िंदगी
में मशरूफ़ थे।
2020 में कोरोना का
जब लहर आया
बेरोज़गार हम सभी हुए,
कुछ ने सौ का पाँच सौ किया
कुछ बेचारे कवि हुए।
हमने भी इक राह चुनी
हम भी अभी-अभी हुए,
बेरोज़गारी ऐसे छाई कि
घर बैठे और कवि हुए।
उस वक़्त का दहशत ऐसा था
कुछ न कुछ सब सीख गए,
रहे अकेले घर में बैठे
हम भी लिखना सीख गए।
कोरोना ने हमें डराया
उसकी तांडव से सहमे थे,
मन में जो इच्छाएं जागी थी
वह मुझको सब कहने थे।
निडर हुए सहकर तकलीफ़ें
अब हम तो मुस्काते हैं,
लिखकर गीत, ग़ज़ल, कविताएं,
नेता, मंत्री को डराते हैं।
वर्षा, बाढ़, सूखा, गर्मी,
जाड़े ठिठुरन पर लिखते हैं,
ऋतु वसंत, पतझड़ हो चाहे
सभी क़लम से सजते हैं।
सरल स्वभाव के थे "रहमत"
अब जलती धूप के रवी हुए,
बेरोज़गारी ऐसे छाई कि
घर बैठे और कवि हुए।
- शेख रहमत अली "बस्तवी"
बस्ती (उ.प्र.)
Tags:
संपादकीय