पीढ़ी यह मुरझायी
यश वैभव के खातिर हमने,
कीमत बड़ी चुकायी।
संस्कार सब गुम हो गए,
पापाचार कमायी।।
परिवार से प्रेम विमुख हो, पीढ़ी यह मुरझायी।।
रिश्ते नाते हुए खोखले,
नही आज सच्चायी।
सुख के चैन हुए रफूचक्कर,
शेष बची कठिनायी।।
दया धरम के भाव खत्म, दिखती है बेहयायी।
परिवार से प्रेम विमुख हो, पीढ़ी यह मुरझायी।।
बाहर से नैतिकता दिखती,
अंदर जमी है काई।
निंदा करते जीवन बिता,
अवसर की कवितायी।
जीवन का आनंद खो गया, शेष बची तन्हायी।
परिवार से प्रेम विमुख हो, पीढ़ी यह मुरझायी।।
ज्यादा पढ़े लिखे लोगो ने,
नई युक्ति अपनायी।
कैसे पल में हो अमीर,
रट बस यही लगायी।
प्रगति के इस अंध दौर में, अंध हुई है कमाई।
परिवार से प्रेम विमुख हो, पीढ़ी यह मुरझायी।।
बेचा है इमाम धरम तब,
शानो शौकत पायी।
सुख की चाहत में हम यारों,
क्या नही की ढिठायी।
ईश प्रदत्त यह उज्ज्वल जीवन, ऐसे दी है गवायी।
परिवार से प्रेम विमुख हो, पीढ़ी यह मुरझायी।।
रचनाकार- डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
पूर्व जिला विकास अधिकारी
सुंदरपुर, वाराणसी
Tags:
रचना/ संपादकीय