एक पारितोषिक ऐसा भी
कितनी मजबूरी, बेबसी होती है....
उफ्फ ये मजदूरी....
पापी पेट के सवालों पर,
स्वयं को धूप में जलाती...
उफ्फ ये मजदूरी.....
हाथ मिट्टी, बालू और सीमेंट से सने होते,
एक साथ कितने ईंटों को सर
पर रखते...
जैसे परिवार के हर लोगों के नाम
की ईंटों की संख्या ,
सर पर सजाते.......
उफ्फ ये मजदूरी...
जाने कितनी सीढ़ियों पे,
लड़खड़ाते कदमों से चढ़ते...
पसीने से तर बतर होते...
फिर भी थक कर न बैठते..
उफ्फ ये मजदूरी....
अपने तौलिए से पसीने को पोंछते...
फिर कमर में उसे बांधते...
सर पर ईंटों को रखते..
सूरज की तपिश कम होते..
शाम होने का अनुमान लगाते...
खून पसीने की कमाई को ...
सर से लगाते.....
मुन्ना, मुन्नी की मिठाई और चॉकलेट के लिए पैसा अलग रखते...
मुन्नी की अम्मा की फटी साड़ी
याद आती..
कुछ खाने के सामान, साड़ी ले आते... अपने लिए कुछ न सोचते...
सबके चेहरे की मुस्कान देख..
अपनी थकान भी भूल जाते
उफ्फ ये मजदूरी.....
चल देता अगली सुबह, अपनी
घर की खुशियों की खातिर
खुद को धूप, बारिश को समर्पित
करता....
थोड़ी सी देर होने पर मालिक की गाली तक सुन जाता....
उफ्फ कैसी ये मजबूरी, मजदूरी..
काश, हर गृहप्रवेश पर ऐसा होता.
उन सारे मजदूरों द्वारा बनाए गए.
घर पर उनको भी गृहप्रवेश के दिन अतिथि के रूप
में आमंत्रित किया जाए...
उन्हें विशेष सम्मान दिया जाए..
उन्हें टेबल पे बिठाकर सारा व्यंजन परोसा जाए...
यही उनके जीवन का विशेष
पारितोषिक हो जाता.....
आखिर हर ईंटों की है उनसे..
दोस्ती पुरानी..
सर पर रखकर निभाई है...
उन्होंने भी तो नींव पुरानी...
उमा पुपुन की लेखनी से.....
रांची, झारखंड
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रचना/ संपादकीय