मेरे गाँव की मिट्टी
लगती माँ , जैसी ही प्यारी ।
हर कण में , प्यार बसा है ,
दिखती दुनियाँ , भर से न्यारी ।
इस पावन मिट्टी में , पले बढ़े ,
बचपन बीता , जवान हुए ।
दादा , परदादा की, जन्मभूमि यह ,
सारे सपने , आकार लिए ।
हर दरवाजे पर , नीम का पेड़ ,
माँ तुलसी हैं , हर आंगन में ।
गाय , भैंस , बँधी दरवाजे पर ,
झूला झूलते , हर सावन में ।
चिड़ियों का झुंड , गीत सुनाए ,
बाँसों का झुरमुट , शोर मचाता ।
अंबर में बादल , तैरते दिखते ,
हर मौसम , मन को भाता ।
शहरों में चकाचौंध , फिर भी ,
मुझको मेरा , गाँव बुलाता ।
मन की शांति , वहाँ ही है ,
बार - बार दिल , यह समझाता ।
अम्मा रोज , सबेरे जागकर ,
हमें जल्द , जगा देती थीं ।
उचित - अनुचित , सब भेद हमें ,
अक्सर ही , समझा देतीं थीं ।
बाबू जी नित , स्नान ध्यान कर ,
रामायण और गीता पढ़ते थे ।
गाँव निवासी , खास मौके पर ,
मंदिर पर , कीर्तन करते थे ।
सहयोग , प्यार एक दूसरे से ,
सदा दिखाई , पड़ता था ।
आपस में बस , प्रेम ही प्रेम ,
कोई ना किसी से , लड़ता था ।
माता - पिता , भाई - बहन संग ,
चाचा -चाची , सब थे एक साथ ।
एक दूजे पर , जान छिड़कते ,
सिर पर सदा , प्यार का हाथ ।
दिन भर के , कामों से जब ,
माँ को , फुरसत मिलती थी ।
बड़े स्नेह से , पास बैठकर ,
सुंदर कथा , कहा करती थी ।
पढ़ो , लिखो , आगे बढ़ो ,
जीवन में , ऐसा काम करो ।
जीवन अपना , भी बदलो ,
माता - पिता का , नाम करो ।
सच में , अपने गाँव की मिट्टी ,
मेरे लिए तो , चंदन है ।
अपना जो , कुछ भी है ,
उस मिट्टी पर , अर्पण है ।
रचनाकार- चंद्रकांत पांडेय
मुंबई (महाराष्ट्र)
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रचना/ संपादकीय