काया जब होवे निरोगी
जीवन में उत्साह रहेगा, कर्म पुण्य मय जब उपयोगी।
तन भी साथ तभी तो देगा, काया जब होवे निरोगी।।
स्थिर पानी सड़ जाता है, पड़ा लौह तो जंग खाता है।
मानस की निष्क्रियता से, बुद्धि शक्ति भी घट जाता है।।
कर्म तुम्हारे जब पवित्र हो, प्रकृति बने सहयोगी.... तन भी
ऊर्जस्वित मन बने सदा तो खिलता बचपन मधुमय यौवन।
जड़ता से जड़त्व पनपता, बुरे विचार से तिमिरच्छन मन।।
शुद्ध आचरण करना सीखो, प्रण करें, जैसे हठ योगी....तन
मन को दृढ़ करके सतपथ पर, बढ़ें चलो जैसे यह दिनकर।
पथ आलोकित तभी बनेगा, बुद्धि विवेक मन हो सहचर।।
पाखंडी मत बनना प्यारे, जस समाज में ढोंगी....तन भी
समय चक्र यह चलता प्रतिपल, परिवर्तन तो होता हर छन।
भ्रष्ट आचरण, पापाचर से, बद्ध दिखे समाज यह कतिपय।।
सर्वानंद तभी फैलेगा, मन बुद्धि पवित्र जब होगी....तन भी
किसको दोष दिए जाते हो, अपने खुद न संभल पाते हो।।
अपने खातिर सुख सुविधाएं, संग्रह बस किए जाते हो।।
पर उपकार की कीमत समझो, बनो न इतना भोगी....तन भी
साथ तभी तो देगा,
काया जब होवे निरोगी।।
रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
सुंदरपुर वाराणसी
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रचना/ संपादकीय