खिलाफत
ए ताज ए शान ख़िलाफत के बगैर खाली है,
तुम्हारे रब से अभी कुछ मेरा हिसाब बाकी है।।
जश्ने बहार ख़िलाफत से ही तो आती है,
बिना ख़िलाफत के मानों जिंदगी ही खाली है।।
नाज़ करते हैं तुम्हारी ख़िलाफत से ही हम हैं,
आज ये मुकाम ये मंजिल तुम्हारी ख़िलाफत से है।।
ख़िलाफ़ कितने थे मुझे इसका कोई गम भी नहीं है,
बस वफ़ादारी से जो खिलाफत की जंग जारी है ।।
इस बेनूर को नूर बनाने में ख़िलाफत की भागीदारी है,
रजामंदी में भी ख़िलाफत का दौर जारी है ।।
वादियों में भी ख़िलाफत की पहरेदारी है,
तुम्हारे रब से अभी कुछ मेरा हिसाब बाकी है।।
रचनाकार - आशीष मिश्र उर्वर
कादीपुर, सुल्तानपुर
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रचना/ संपादकीय