कैसे उठती है अर्थी इस मानवता की!
हमने तपता व्योम निहारा और बेंवाई फटी धरा की।
हमने देखा, कैसे उठती है अर्थी इस मानवता की।।
भूंखी, प्यासी, पीड़ित, व्याकुल आने वाली तरुणाई के,
नयनों में आंसू देखे तो पीड़ा गाई भारत मां की ।।
हमने देखे हैं मधुवन में तितली पर बाजों के पहरे ।
हमने देखे जख्म फूल की पंक्खुड़ियों पर बेहद गहरे।।
हमने साक्षी और निर्भया की देखी हैं जली चितायें,
फिर बोलो तो कैसे लिख दे हम श्रंगारिक गीत सुनहरे।।
हमने ऐसी अबलावों के औ उन सबकी पूज्य अना की,
आंखों में आंसू देखे तो पीड़ा गाई भारत मां की ।।
हम शब्दों के बाजीगर हैं हमने शब्द रचे औ तोड़े।
शब्दों से ही हृदय विदारे टूटे हृदय शब्द से जोड़े।।
इन शब्दों ने कुरुक्षेत्र में युद्ध महाभारत रच डाले,
हमने शब्दों के प्रति जब निज कर्तव्यों से मुह मोड़े।।
समर उज्र मां गांधारी के केशव के प्रति शब्दावलि की,
आंखों में आंसू देखे तो पीड़ा गई भारत मां की ।।
कवि- नितिन मिश्रा निश्छल
रतौली, सीतापुर, उत्तर प्रदेश
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रचना/ संपादकीय