शून्य सी चिंतन करती

शून्य सी चिंतन करती
शून्य सी चिंतन करती,
क्या उसके जन्म पर
शिकन मां पिता के माथे पर
बेहिसाब आए होंगे..
पालन पोषण फिर दहेज
भाव थोड़ी खुशी थोड़ा गम का 
समावेश दिल में छिपाते होंगे..
फिर वही बिटिया जान बन गई
मां पिता की मुस्कान बन गई..
कितना बदल गया है अब समय,
हर बात पर मनाते हैं उत्सव..
बेटी दिवस पर मनोभाव लिख 
अपने प्रेम को अंकित करते
बेटी के मस्तिष्क पर,
वक्त भी अब बेवक्त हो गया है,
कहीं बेटी नहीं, कहीं मां पिता नहीं
कौन चूमे उसके ललाट को,
गले लगा कर उसे स्नेह कर जाए..
उन पसीने की बूंदों को पोंछ रही होती,
अपने वजूद पर खुद इठला रही होती..
देख नहीं पा रही हैं ये अंखियां,
बरस रही हैं उनके प्यार की बूंदे
अनगिनत, बेहिसाब वैसे ही,
मेरे मन में मानो कोई तूफान उठा हो जैसे..
समेट रही हूं उनके स्नेह को आंचल पसार
महसूस किया है मेरे ललाट पर 
मां पापा के स्नेह का चुम्बन
लगाया मुझे भी "बेटी" कहकर आलिंगन 
झूम रही हूं उनका स्नेह पाकर वैसे ही,
मोरनी झूमती जैसे मेघपुष्प देखकर...

- उमा पुपुन की लेखनी से
रांची, झारखंड

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