जब प्रेम दया का भाव नहीं
घर समाज में फैली कटुता, पहले जैसा प्यार नही ।
कैसे खुशी धरा पर आए, जब ईमान से प्यार नही।।
स्वास्थ्य भला कैसे चंगा हो, शुद्ध मिले आहार नहीं।
पैसे की लालच है इतनी, उज्ज्वल कारोबार नही।।
घटतौली, विष तुल्य मिलावट, मिटने का आसार नहीं।
अपनी वाली करें सभी जन, करुणा का उद्गार नहीं।।
दया, प्रेम, मानवता के संग, दिखता अब व्यवहार नहीं।
अपनी निज उन्नति की चाहत, दूजे का उपकार नहीं।।
कैसे विश्व गुरु अब होंगें, न्यायोचित जब आचार नहीं ।
बच्चे अपने कैसे सुधरें, अच्छी संगत संगसंस्कार नहीं ।।
देश में कैसे बने एकता , कुल में ही, नैतिक सार नही।
जीवन अब है नहीं सरल, सत्य आचरण आधार नहीं।।
परनिंदा, ईर्ष्या का तांडव, परहित, पर उपकार नही।
हर घर की है हालत बिगड़ी, आपस में, अब प्यार नही।।
बद अमली अब पैर पसारे, जब चरित्र आधार नहीं।
कितने और पतित हम होंगे, सोचें जब एक बार नही।।
रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
सुंदरपुर वाराणसी
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