भक्ति भाव से अन्तस चेतना में ईश्वरानुभूति : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
(एक चिंतन)
भक्ति घनीभूत प्रेम की अवस्था को माना जाता है। भक्ति भावों की शुद्धि,भावों में भगवान की विलीनता, भगवानमय जीवन, यही भक्त का लक्षण होता है। नैतिकता और उच्च मानवीय मूल्यों के साथ ही भक्ति हो सकती है।कहते भी है कि कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होए।
भक्ति करे सोई सुरमा जाति वर्ण कुल खोए।।
वास्तव में, तुकाराम जी के शब्दों में कहें तो, तिलक और माला धारण कर लेने से हृदय में भक्ति भाव नहीं जग जाता।
भक्ति के माध्यम से भक्त अपनी चित्तवृत्तियों के कलुषित विचारों, दुष्प्रवत्तियों व मानवीय विकारों का नाश करके शुद्ध स्वरूप में रमण करता है, और अंततः अपने अंतस को ज्ञान से आलोकित करता है।
भक्ति से मन के विकार नष्ट होते हैं, और उदात्त भावों की सृष्टि के साथ मानव स्वयं को एक ऐसे पुनीत वातावरण में परवेष्ठित करता है कि उससे समस्त अशुभ संकल्प विकल्प तिरोहित हो जाते हैं। भक्त जब कर्तापन के अहंभाव से विरक्त होकर अपने को निमित्त मानकर कार्य करता है तो यही उसका कर्म निष्काम हो जाता है और फल की चाह न हो तो चिंता से मुक्ति पा जाता है।
भक्त चार प्रकार के बताए गए हैं। पहला अर्थार्थी अर्थात वे भक्त जो केवल धन प्राप्ति हेतु प्रार्थना करते हैं। दूसरे प्रकार के भक्त आर्तु कहलाते हैं, जो अपने संकट निवारण हेतु साधना करते हैं, तीसरे वे भक्त होते हैं जो जिज्ञासु कहलाते हैं, जो ईश्वर को जानने की इच्छा रखते हैं, और चौथे प्रकार के वे भक्त जो ज्ञानी कहलाते हैं, जो अच्छी प्रकार से भगवान को जानते हैं। ज्ञानियों को तो ईश्वर का साक्षात स्वरूप ही कहा जाता है।
भक्ति में जब भावों की परिशुद्धता के बाद ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होता है तो वही ऊर्जा परमात्म ऊर्जा में लय हो जाती तभी भक्ति का अनुभव होता है, वाणी जहां रुकती है, शब्द जहां थकते हैं, मन जहां मौन होता, परम भक्त का चरित्र वहीं से प्रारंभ होता है। आप सभी को यहां बताना जरूरी है कि सामान्य भाव चेतना अपनी मलिनताओं एवम् अशुद्धियों के कारण उस परम चेतना का अनुभव नहीं कर पाती।
आचार्य तुलसी ने राम चरित मानस में लिखा है-
भाव सहित खोजही जो प्राणी।
पाव भगति मनी सब सुख खानी।।
यानी सच्ची भक्ति के लिए भाव का होना अत्यंत आवश्यक है।
भक्ति के लिए अहिंसक होना पड़ेगा, जिसमें मन कर्म वचन से किसी भी प्राणी के प्रति बैर भाव को त्यागना आवश्यक होता है। इंद्रिय निग्रह, भक्त को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध में आसक्त नही होना चाहिए। प्राणी मात्र के लिए भक्त को दयावान होना उनके दुखों को दूर करने का उपाय करना भी चाहिए। भक्त को क्षमाशील भी होना चाहिए। भक्त को आंतरिक व बाह्य शुद्धि पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जीवात्मा ब्रह्म विद्या से, तप से,बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है। ध्यान से मन विषयों से रहित हो जाता है। भक्त को सत्य का ही सहारा लेना चाहिए, क्योंकि कहते है कि सत्य से ही स्वर्ग की प्राप्ति, यानी परम पद की प्राप्ति संभव होती है।
कुल मिलाकर भक्त को अपने मन को शांति अशांति, मान सम्मान, सुख दुख से निर्लिप्त होना जरूरी होता है, तभी उसे दैवीय अनुभूति होना शुरू होती है।
वैसे भक्ति भगवान की तीन तरह से की जाती है। ज्ञान योग की भक्ति, जिसके माध्यम से सर्वत्र ईश्वर की छवि निहारते रहना।
भक्ति योग में निश्चल भाव से अपने को ईश्वर के समक्ष अर्पित कर देना। कर्म योग, प्रभु भाव से सभी प्राणियों की सेवा करना।
भक्ति में नवधा भक्ति की चर्चा की जाती है।
श्रवणम कीर्तनम विष्णोः स्मरणम् पाद सेवनम्।
अर्चनम्, वंदनम्, दास्यम् संख्यआत्म निवेदनम्।।
इसमें ईश्वर का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन आता है।
यदि भक्ति का वैदिक कालीन विश्लेषण किया जाय तो हम पाते हैं कि परीक्षित जी ने श्रवण रूप में भगवान की भक्ति की।शुकदेव जी ने कीर्तन रूप में ईश्वर को याद किया। भक्त प्रह्लाद ने निरंतर स्मरण करते हुए प्रभु की भक्ति की। माता लक्ष्मी ने पाद सेवन कर भगवान की भक्ति संपन्न की। पृथु राजा ने अर्चन करते हुए उस परम ब्रह्म की भक्ति की। अक्रूर जी ने वंदन का सहारा लेते हुए उस परम सत्ता की भक्ति पूर्ण की। हनुमान जी ने दास्य भाव रख कर भगवान राम की पूजा की। अर्जुन द्वारा भगवान कृष्ण को सखा भाव में उनकी आराधना की। और नौवीं भक्ति की श्रेणी में आत्मनिवेदन का सहारा लेकर बलि राजा द्वारा भगवान की स्तुति, भक्ति की। यही नवधा भक्ति का उदाहरण आता है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार भक्ति तीन रूपों में प्रकाशित होती है। पहला श्रद्धा, लोग पवित्र स्थलों, तीर्थों, मंदिरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते है, क्योंकि वहां भगवान की पूजा की जाती है। श्रद्धा का मूल ही प्रेम है। हम जिससे प्रेम नही करते उसके प्रति श्रद्धालु नही हो सकते।भक्ति का दूसरा रूप प्रीति, का होता है, जिसका मतलब ईश्वर चिंतन में आनंद की अनुभूति।
इसके बाद तीसरा रूप विरह का आता है, विरह प्रेमास्पद के अभाव में उत्पन्न होने वाला तीव्र दु:ख। यह दुख सब दुखों के सबसे मधुर है।भगवान को न पा सकने की तीव्र वेदना की दशा को विरह कहते हैं।
प्रेम की इससे भी उच्च अवस्था है, जब भगवान के लिए प्राण धारण करना सार्थक समझा जाता है। ऐसे प्रेमी के लिए भगवान के बिना एक क्षण भी रहना असंभव हो उठता है। शास्त्रों में इसी अवस्था को तदर्थ प्राणसंस्थान कहा जाता है।
भक्ति में तदीयता तब आती है, जब साधक भक्तिमत के अनुसार पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है, तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है,जब साधक स्वम को भूल जाता है और उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज अपनी है, तभी उसे तदीयता की अवस्था प्राप्त होती है, तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है।
भक्ति को सेवा, पूजा, प्रार्थना, उपासना, श्रद्धा, विश्वास व अनुराग के रूप में व्यक्त किया जाता है,तो कभी नव बंधन विनाशक के रूप में मोह, लोभ, शोक व भय आदि के विनाश के लिए प्रयुक्त होती है। भक्ति आत्मा के शुद्ध स्वरूप में विचरने में समर्थ होने के कारण परमसिद्धि से विभूषित भी की जाती है।
आत्मतत्व को दीप्त करने की शक्ति से संपन्न होने के कारण प्रकाश चेतना आदि के लिए भी भक्ति का प्रयोग होता है।
श्रीमद्भागवत गीता के बारहवें अध्याय के तेरह से बीस श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से भक्त के पैंतीस गुणों की चर्चा की है, उन सभी गुणों में पहला गुण "अद्वेष्टा सर्वभूतानां"अर्थात मेरा भक्त वह है जो एक भी प्राणी से द्वेष नहीं करता। यदि आप द्वेष करते हैं तो भगवान के भक्त हो ही नही सकते। भक्ति करते करते ही साधक संबोधी के पांच पदों को प्राप्त करता है।आत्म ज्ञान, अद्वैत ज्ञान, कैवल्य ज्ञान, निर्वाण ज्ञान, परम पद ज्ञान, जिसमें साधक को परमात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा नजर नहीं आता, इस मुकाम पर पहुंचा असंभव नहीं तो अत्यंत कठिन होता है।
लेखक : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
सुंदरपुर, वाराणसी
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संपादकीय