रिश्ता अपना भी पराया भी
देख रहा हूं हर रिश्ता,
हर अपना पराया भी।
बिक रहा है हर रिश्ता,
देख रहा हूं हरेक की कीमत भी।
बदलता है वक्त पल-पल,
देख रहा हूं हरेक की नीयत भी।
जो मिलते थे भोले चेहरे रोजाना,
देख रहा हूं आज उनकी सीरत भी।
बदलते वक्त में,
देख रहा हूं सीरत, सूरत और नीयत भी।
रोज निमंत्रण देने वालों की,
देख रहा हूं पहचान भी।
रोज मिलता हूं "सत्यता" के मनुष्य रुपों से,
देख रहा हूं उनकी झूठी रंगत भी।
रचनाकार - डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"
अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
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रचना/ संपादकीय