लेख- खोती भावनाएं :
डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"
दोनों खटखटाते रहे दरवाजा,
दरवाजा खोलने का वक्त,
ना तुम पर था, ना हम पर था।
एक अहम में और दूसरा इन्तजार में था।
बीत गए बरसों, इसी कश्मकश में,
एक अहम में आगे था और दूसरा इन्तजार में पीछे था।
पड़ाव बदला शहर के मोड़ों का,
दरवाजा आज भी खटखटाते हैं, दोनों।
मगर …..................................।
बीत गए बरसों, खामोशी से दरवाजा खटखटाने में।
ना दरवाजा खुला, ना कोई मिला।
हो गया अंत रिश्ते प्यारों का।
एक ही दरवाजे पर खड़े होकर,
दोनों खटखटा रहे थे, दरवाजा।
मगर...............................
फर्क सिर्फ इतना था,
एक दरवाजे के अंदर और दूसरा बाहर था।
Tags:
रचना