दिव्यागंता : एक अधूरी दुनिया
डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"
जिनकी जुबान नहीं सुना सकती,
तुमको तान।
उसके मन के संगीत को, ज़रा धैर्य से सुनो उसका गान।
सुन नहीं सकता जो संगीत,
ज़रा विचार करो कितने होंगे,उसके मन में गीत।
ओझल है,
जिनकी आंखों से, हर रंग
जरा सोचो
क्या होगी, उसकी जीवन तरंग।
छू नहीं सकता जो किसी भौतिकता के अंश को,
जरा विचार करो,
उसके जीवन के तंक्ष को।
दौड़ नहीं , जो चल नहीं सकता,
ज़रा विचार करो,
उसकी पीड़ा कोई समझ नहीं सकता।
बहुत शोर है,
हर ऐसी अन्तरआत्मा में,
जो हौसला हर दम जीत का भरती है।
कभी पहाड़ो की चोटी छूती,
तो कभी अम्बर से विचार बिखेरती है।
फिर भी कहीं न कहीं, हर पल इनमें
"दिव्यागंता" की एक अधूरी दुनिया बसती है।
रचनाकार - डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"
अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
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