आवरण

आवरण - 

कभी  अत्यावश्यक   हो   जाता  , 
कभी   हानि  का  बनता कारण  । 
परिणाम   प्रायः   भयंकर  होता  , 
आओ  सब  मिल  करें निवारण  । 

सच्चाई    का     ओढ़े  आवरण  , 
गलत    कार्य     तो   होते  आए । 
दुनियाँ को दिखाया  गलत  राह  , 
सही    लोग    मुँह    की   खाए  । 

अनैतिक कार्य  अक्सर जो  हुए  , 
नैतिक  बताकर  सत्य को रोका । 
सच्चे    बनकर   झूठे   लोगों  ने  , 
अनैतिकता   का    पौधा   रोपा  । 

पांडवों     का     बड़ा    हितैषी  , 
शकुनि ने स्वयं को सिद्ध किया  । 
असत्य  ने    सत्य   को    रोका  , 
पांडवों को सदा धोखा ही दिया  । 

खोल  पहनकर  शुभचिंतक  का  , 
रावण   ने    एक   खेल   रचाया । 
सीता  माँ    को    समझ  अकेले  , 
साधू    का     था   वेश   बनाया  । 

उत्तम  शिक्षा   प्रदायक   बनकर  , 
कितने   रचें    स्वार्थ  का  धन्धा  । 
रक्षक   बन    समाज   को   लूटें  , 
जग   प्रसिद्ध  सब  गोरखधन्धा  । 

वस्त्र  ,    पर्दा    ,   लज्जा    भी  , 
बड़े  उपयोगी   चर्चित  आवरण  । 
व्यक्ति     की      कीमत   बढ़ाएँ  , 
व्यक्तित्व    का    करें    संरक्षण  । 

असत्य    का    चोला    पहनकर  , 
कभी   किसी   को   नहीं  सताएं  । 
दर्पण     सम    पारदर्शी    होकर  , 
जैसे  हों   खुद  को  वही  दिखाएँ  । 

रचनाकार - चंद्रकांत पांडेय
मुंबई / महाराष्ट्र

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