चित्र और चरित्र की तस्वीर : डॉ कंचन जैन “स्वर्णा”
चित्र में रंग भरकर सोचता है, कलाकार।
चरित्र के लिए, कौन सा रंग लूं।
जो ढक दें, स्वार्थ के भावों को चेहरे से,
ऐसी कौन से रंगों की चादर लूं।
खो चुकी मनुष्यता में, रंग भरने के लिए
कौन से दीपक का रंग लूं।
वर्षों बीत गए एक ही चित्र को सजाते सजाते कलाकार के,
मगर न चरित्र और चित्र का कोई रंग बदला,
ये देख सभी रंग शून्य हो गए कलाकार के।
ढूंढता है, कलाकार संसार में,
कोई ऐसा रंग जो जगमगा दे मनुष्यता को।
मगर छुप गया है,
स्वार्थ के पीछे मनुष्य की मनुष्यता का रंग।
रंग तो प्रकृति के भी कमाल थे,
मगर स्वयं को स्वार्थ और छल कपट से सजाने के लिए मनुष्य के पास रंग भी बेमिसाल थे।
आज शून्य पर बैठकर सोचता है अपने बदलते रंगों को,
जब आज संसार के सभी रंग शून्य हो गए।
रचनाकार- डॉ कंचन जैन “स्वर्णा”
अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
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संपादकीय