रचना - “पता सबको है, अपने कर्मों का”
रचनाकार- डॉ कंचन जैन स्वर्णा
कही अनकही कहानियां,
हो जाती हैं भावनाएं।
नाम अनेक कहते कहते,
बीत जाती है, जिन्दगानियां।
कुछ चेहरे नजरों में रह जाते हैं,
कुछ नयी,कुछ पुरानी कहानियां हो जाते हैं।
पढ़कर अक्षरों को,
याद करते हैं,सब।
अपनी अपनी कहानियां।
पता सबको है,अपने कर्मों का,
फिर भी मुंह मोड़ भूल जाते हैं।
निभाते हैं, रोज सुबह से शाम तक,
नयी नयी भूमिकाएं।
और सुनाते हैं, सबको नयी नयी कहानियां।
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संपादकीय