"अनुरूप"
नहीं रहा अनुरूप तुम्हारे,
या फिर होगी कोई विवशता,
देहरी मेरी छूट रही या,
मैं देहरी से छूट चुका हूँ!
कई बार मैंने भी लिख कर,
स्नेह रखा उर तुम्हें बताया,
तुमसे सौ सौ बार कहा, क्या?
कुछ ना!कुछ ना! कुछ ना! भाया?
दसों बार नालायक बन कर
तुम्हें रिझाऊ, तुम्हें बुलाऊ,
तुझे पता है, चादर मेरी!
जितनी भी है, तुझे चढ़ाउ!
मगर आज मन विकल सोचता,
बार...बार..बस.. बार... बार..यह,
नहीं रहा मनका मन लायक,
या फिर..कोई बात बड़ी है?
प्रश्न अनेकों आते रहते,
मगर उन्हें समझाते रहते,
नहीं कहा, कुछ नहीं लिखा पर,
अब कब तक सकुचाते रहते!
आज यहां मन बांध रहा हूँ,
आत्मग्लानि से मन है भर भर,
सोच रहा! डिय्योढ़ी तक आकर,
लौट चलू मैं, तुम्हें जता कर,
या फिर एक बार पूछू.. मैं!
खुद से, खुद को, फिर निहार कर,
नहीं रहा अनुरूप कभी या,
आखों का वह नीर बह गया!
आखों का वह नीर बह गया!
©®डॉ. सत्य प्रकाश
28.03.24
भोर की बात
Tags:
संपादकीय