सेवा, प्रेम का जीवन
(कविता)
अपना कहने से ही कोई,
अपना क्या,है वह होता।
अपनेपन के,गुम होने से,
बरबस दिल व मन रोता।।
अपना जो भी,ख़्याल रखा
कहलाता है,वह हमदम।
जिससे,अपना मन मिलता
रमता,मन मंदिर में हरदम।।
अपना होता,वही शख़्स
जो,मन भावों को समझे।
सत्य प्रेम संग सेवा से ही,
जीवन हर्षित,है सुख पनपे।।
दूर भी जाकर पास रहे वो
होता प्रिय वह ,अपना।
वही मित्रता मनभावन है,
पूर्ण करे जो सद सपना।।
पास वही जो हृदय विराजे
कहते हैं,महान सुधी जन।
सत्य प्रेम से,जीवन जियें,
उज्ज्वल होता,तन और मन।।
सबका जब हम ख़्याल करें
करें प्रेम, सेवा का अर्पण।
सच्चे प्रेम प्रदर्शन से ही,
मिलता है,सद्भाव समर्पण।।
छोटे से बस इस जीवन में
आओ सबसे प्रेम निभायें।
बोले जब भी ,मीठा बोले,
सद्गुण को,सदा अपनायें।।
चाहे दूजों में अवगुण हो,
होवे न,परदोष का दर्शन।
सेवा सबकी,प्रेम सभी से,
समानभूति मय तब जीवन।।
प्रेम संग,सेवा से प्रियवर
मन मयूर होता है भाषित।
अन्तर्मन,यदि साफ़ रखोगे,
होगा स्व,आत्म प्रकाशित।।
रचनाकार: डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
सुन्दरपुर वाराणसी
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