पतनशील इस दौर का, प्रस्तुत लघु इतिहास
(कविता)
ख़तरा अब तो दृश्यमान है, संकट में परिवार।
हुए आधुनिक आज सभी, उच्छृंखल व्यवहार।।
मुखिया का घर बाहर में, होता बस उपहास,,,,,पतनशील
हैं समाज की कृति सभी, मिलने की मजबूरी।
प्रेम प्रदर्शन बाहर दिखता, अंतर मन में दूरी।।
लोगों में सामाजिक दूरी, का प्रतिपल खटास,,,,पतनशील
देश में अब,फैल चुका है, नक़ली ड्रग व्यापार।
कैसे स्वास्थ्य सुरक्षित होवे, रोगी भी लाचार।।
जाँचों में भी घोर कमीशन, का है सफल प्रयास,,,,,पतनशील
घोखाधड़ी मिलावट का, चलता है अब धंधा।
लालच है, धन-अर्जन का, काम करें कुछ गंदा।।
सत्याचरण से दूर हुए, झेलें दुःख पीड़ा संत्रास,,,,,पतनशील
मँहगाई की मार है भारी, आम जनों पर संकट।
भूख, बेकारी भ्रष्ट व्यवस्था का चुभता है कंटक।।
नीति ही ऐसी बना रहें हम, जिसमें कुछ न ख़ास,,,,,पतनशील
मेल मिलाप न्याय की बातें, हुई आज बेमानी।
अब सरकारों की नीतियाँ, बनती हैं मनमानी।।
फिर भी दरिद्र-नारायण की, लगी हुई है आस,,,,,पतनशील
शिक्षा की हालत पंक्चर, कोचिंग की बीमारी।
आज दर्जनों बोर्ड के रहते, क्या है छवि हमारी।।
शिक्षा में अब नवाचार का, बिलकुल है उपहास,,,,,पतनशील
अधिक उपज की लालच में, मिट्टी हुई बीमार।
विष से भरे रसायन का अब, खेती में भरमार।।
लाभ कमाने के चक्कर में, जीवन का है ह्रास,,,,,पतनशील
झूठ संग बेशर्मी,छल का, राजनीति का दौर।
अपशब्दों से धूल चटाकर, बनते सब सिरमौर।।
स्तरहीन अब आख्यानों का, मंत्र रखें सब पास,,,,,पतनशील
अब लोगों की नहीं सुरक्षा, लूट डकैती भारी।
शोषित अब असहाय हुए, पुलिसिया लाचारी।।
किस बूते पर विश्व गुरु हो, होता नहीं आभास,,,,,पतनशील
न्याय व्यवस्था की भी हालत, मत पूछो श्रीमान।
हर विभाग के दफ़्तर में अब, दाम करावे काम।।
केवल मंच से भाषण सुन्दर, करे कौन विश्वास,,,,पतनशील
जिसकी लाठी उसकी भैस, हुई कहावत पक्की।
भीड़तंत्र अब लोकतंत्र में, दिखते हैं सब झक्की।।
झूठ और बे-ईमान से, जनमानस है दिखे हतास,,,पतनशील
हर विभाग में पोस्ट है ख़ाली लेकिन भरी न जाये।
अब संविदा , आऊटसोर्स से, शासन काम चलाये।।
पुरानी पेंशन की माँगें, सत्ता सोचे, है बकवास,,,,,पतनशील
अब समाज का ताना बाना, रिश्ते प्रतिदिन टूंटे।
विश्व प्रेम,बंधुत्व की बातें, ये बयान अब झूठे।।
छद्म घात आतंकवाद से, सभ्य देश हैं हुए उदास,,,,,पतनशील
रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा, वाराणसी
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