भावों का अनूठा चित्रण कवि सत्येंद्र तिवारी का गीत संग्रह ‘मौसम-मौसम मन ’ और मैं - जयराम सिंह गौर

भावों का अनूठा चित्रण कवि सत्येंद्र तिवारी का गीत संग्रह ‘मौसम-मौसम मन ’ और मैं - जयराम सिंह गौर

  मैं 1968 में लखनऊ से कानपुर आ गया था। कब, कैसे मैं सत्येंद्र जी मिला और कब मैं उनका मित्र बना मुझे याद नहीं है, पर,  मित्रता आज भी कायम है। एक मेरी अपनी धारणा है शायद आप भी सहमत हों कि "साहित्यकार को अच्छा व्यक्ति होना ही चाहिए।"  सत्येंद्र जी के आचरण और व्यवहार से मेरी इस धारणा की पुष्टि होती है। इस संदर्भ में कवि नीरज का एक दोहे का उल्लेख करना चाहूंगा-

"आत्मा के सौंदर्य का, शब्द-रूप है काव्य।
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।।"

 वैसे आत्मा का कोई स्वरूप नहीं होता है, पर कवि को कल्पना का असीमित अधिकार मिला हुआ है जिसके चलते कवि ने आत्मा के रूप और सौंदर्य दोनों के दर्शन कर लिए। कवि को समाज में आम-जन से ऊपर का दर्जा मिला है। उसका एक कारण यह भी  हो सकता है कि अनुभूतियां तो सभी के पास होती हैं पर सब उनको व्यक्त नहीं सकते, कवि अपनी और जग की पीड़ा को गाता है, उसका यही गुण उसे आम जन से बिलग करता है। निःसंदेह तिवारी जी में यह दोहा निरूपित होता है।

  'निसंःदेह गीत’ मानव मन की कोमलतम अनुभूतियों का उद्वेलन या विस्फोट होता है। मानव मन में जब अनुभूतियां घनीभूत हो जाती हैं तो उनका विस्फोट गीत के रूप में होता है, जैसे मिथुनरत नर क्रोंच पक्षी की बहेलिये द्वारा हत्या को देख कर आदिकवि बाल्मीक के मुँह से ‘मा निषाद प्रतिष्ठात्वम गमः शास्वती समः‘ फूट पड़ा था। गीत से मानव का प्रथम परिचय लोरी के रूप  में होता है।  यह कह सकते हैं कि  प्रकृति गीत को मानव को घुट्टी के रूप में पिला देती है, गीत बीज रूप में हर मानव मन में विद्यमान रहता है पर उसका प्राकट्य कोई कवि ही कर पाता है।  तिवारी जी एक सिद्ध गीतकार हैं, उन्होंने गीत की हर विधा पर अपने हाथ अजमाए हैं।

   मैं कुछ भी लिखने से पहले एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं कोई पेशेवर समीक्षक नहीं हूँ, मैं एक पाठक भर हूँ। किसी की रचनाओं को पढ़/सुन कर जो मन में भाव उगते हैं बस उन्हें प्रस्तुत कर देता हूँ। सत्येंद्र जी का गीत संग्रह ‘मनचाहा आकाश’ के बाद अब ‘मौसम-मौसम मन’ सामने है। यह शीर्षक ही बता देता है कि न तो सब मौसम ही एक जैसे होते हैं न ही मानव की मानसिकता ही एक जैसी होती है।  उसी के अनुरूप उनके संग्रह में हर मौसम और हर मानसिकता के गीतों का समावेश है। 

संग्रह में विभिन्न भंगिमाओं के कुल सत्तर गीत संकलित हैं। संकलन के पहले गीत ‘'मन का हिरना’  में कवि ने मन की तुलना हिरन से की है, मन होता भी हैं हिरन की भांति ही चंचल! मन भी अतीत और वर्तमान की कितनी स्मृतियाँ सहेजे रहता है जिनको पाने के लिए मानव-मन कस्तूरी-मृग की तरह कहाँ-कहाँ नहीं भटकता है-

‘‘मौसम-मौसम मन का हिरना
कस्तूरी अनुबंध सहेजे,
रहा भटकता प्रिय सुवास को,
ज्यों मरु-लहरें छलें प्यास को"

  अपनी ही सुगंध को खोजने में जिस प्रकार व्याकुल कस्तूरी-मृग यह नहीं समझ पाता है कि सुगंध तो उसके अंदर से आ रही हैं, वह पूरे वन में दौड़ता रहता है। कुछ ऐसी ही दशा मानव मन की भी होती है।  वह भी तो अपनी आकांक्षाओं के समाधान के लिए निरंतर व्याकुल रहता हैं। सचमुच चाहे मृग-मरीचिका हो या मन-मरीचिका,  यह मानव और हिरन दोनों को खूब छलती हैं। कवि ने मानव मन की मनोदशा का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है।

  कवियों को वर्षाऋतु वैसे भी बहुत प्रिय होती है, सत्येंद्र जी को भी प्रिय होनी ही चाहिए, उन्होंने भी वर्षा पर ‘भादों में पाहुन’, ‘टूटे तट बंध’, ‘छाने लगे मेघ अंबर में’, ‘घन बरसे आधी रात’, ‘मेघा बिन उदास है’,‘मेघा ओ मेघा’ आदि गीत लिखे,  जिनमें उन्होंने वर्षा को अपनी दृष्टि से देखा है। कवि को अतिबृष्टि और अनाबृष्टि भी अच्छी नहीं लगती क्योंकि दोनो ही स्थितियाँ आमजन के लिए बहुत ही कष्टकारी होती हैं। 

संग्रह के 69 वें गीत ‘अतिबृष्टि-अनाबृष्टि’ के कुछ भाव चित्र देखें-

‘अतिबृष्टि या अनाबृष्टि हो,
मन गरीब का घबड़ाता है।
---
गाँव शहर के मजदूरों के 
के घर फाँका पड़ जाता है।

  इस समूचे गीत में कवि ने अपनी व्यथा का सुंदर निरूपण किया है। गरीबजनों की मजबूरियाँ और महाजनों/व्यापारियों की निर्ममता का सुंदर वर्णन किया है।

 ‘भादों के पाहुन’ में कवि मेघों का स्वागत करता है इसलिए कि भादों की वर्षा से ही धान के खेत लहलहाते हैं। आम-जनों और किसानों को खुशी मिलती है, इसीलिए तो वह कह उठता है-

"आखिर आए,छाए, बरसे,
भादों के पाहुन!"

कवि आम-जनों का गीतकार है, उनके सुख-दुखों से उसे गहरा सरोकार है, उन्हीं को वह गाता है। जैसा मैंने कहा है कि मन के कोमलतम भाव जो बीज रूप में विद्यमान रहते हैं, जिनका अनुकूल परिस्थितियों के मिलने पर अंकुरण होता है, कवि के उन भावों के अंकुरण का एक पक्ष देखें-

"झटके घन कुंतल जब अपने,
नीर झरे झर-झर,
कभी निचोड़े भीगा आँचल,
मधु अमृत निर्झर,
कभी लजाती सकुचाती है, 
हंसती मन ही मन!"

 कवि ने वर्षा का अद्भुत चित्रण द्वारा एक अल्हड़ नायिका के रूप में मानवीकरण करके, सुंदर उदाहरण रच कर अपने कवित्व का परिचय दिया है। यह सब इतना सुंदर बन पड़ा है कि पंक्तियाँ सुनते/पढ़ते समय एक वर्षा में भीगती हुई रूपसी की छवि साकार हो उठती है।

 मानव मन भी बड़ा अजीब होता है, क्षमा करें यह सभी सहृदय लोगों के साथ होता है कि मन ही मन किसी को चाहते रहना और सोचते रहना कि अबकि  वे मिलेंगे तो यह कहेंगे वह कहेंगे पर मिलने पर कुछ नहीं कह पाना। 

कवि भी इन स्थितियों से गुजरा होगा तभी तो वह अपने गीत ‘चाहतों का गगन’ में यह कह पाया है-

"हम नहाते रहे शबनमी चाँदनी,
पूर्णिमा तुम रहे ज्वार हम भी रहे
देखा ही किए मन में चाहत लिए,
मौन तुम भी रहे मौन हम भी रहे।"

  ‘पूर्णिमा तुम रहे ज्वार हम भी रहे’ केवल यही एक पंक्ति मन के कितने भावों को व्यंजित कर जाती है। सत्येंद्र जी ने कितने मनोयोग से अपने भावों को शब्दों में गुंठित कर अपने गीतों को ढाला है कि मन वाह-वाह कर उठता है।

  जैसा गीत संग्रह का शीर्षक है ‘मौसम-मौसम मन' उसी तरह मानव मन की दशाएं भी मौसम के अनुसार बदलती रहती हैं; तभी तो कवि को अपने गीत ‘मैं सरवर का पानी’ में यह कहना पड़ा-

"मेरा और तुम्हारा मिलना
भ्रामक क्षितिज रहा सपने सा।
अधरों की लोहित कारा में
प्रिय प्यासा बंदी सुनने सा।
नियत रही खेलूँ सुधियों से
रटूँ नाम की लिए निशानी।"

‘नियत......निशानी’ इस एक पंक्ति ने जाने क्या-क्या कह दिया जाने क्या दिखा दिया। अगर पाठक भी गंभीरता से देखने का प्रयास करेंगे तो निःसंदेह ही कवि की भाव-भूमि से जुड़ पाएंगे। 

कवि के मन में सामाजिक पाबंदियो के प्रति आक्रोश भी है तभी तो वह अपने गीत ‘तकिया में बंदी रुई सा मन’ में कहता है-

"वक्त की ना हों जहाँ पाबंदियाँ
पंख फैला कर उड़ें आकाश में
युगल हंसों के सपन साकार हों
मोरपंखी चाहतों के रास में
स्मीरण के सुवासित आगोश में
मधुभरी निशिगंध के झूमें सुमन।"

 कवि ने मन की तुलना तकिया में भरी रुई से की है, कि उसे यह आजादी  नहीं है कि वह किसी भी तरह तकिया के बाहर आए, तकिए की रुई की विवशता को उसने मानव-मन से जोड़ा है। आपको नहीं लगता कि यह जड़-चेतन के बीच की  तुलना थोड़ी सी अजीब है, पर कवि को तो कैसी भी कल्पना करने का अधिकार है।

  कवि के कुछ बिम्ब चित्र बहुत ही अनूठे बन पड़े है, उनके गीत ‘ऋतुरानी मुस्काई’ में देखें-

"नदिया के आँचल पर
अँगड़ाई लहर-लहर,
सिंदूरी गगन मुग्ध
साँझ के सुहाग में
ऋतुरानी मुस्काई
बौराई पुरवाई
रह-रह पंखा झलती
अलस बुझी आग में।"

  कवि ने आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग किया है जो सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य है। कवि ने ग्राम्य प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग किया है जैसे-‘पछोर रहा लिए पवन सूप’, ‘समय अरोर रहा’ आदि। मुझे पूरा विश्वास है कि सत्येंद्र जी के गीत संग्रह ‘‘मौसम-मौसम मन’ का साहित्य क्षेत्र में यथेष्ट स्वागत होगा। मैं  कवि श्री सत्येंद तिवारी के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।

संपर्क-7355744763
कवि  -श्री सत्येंद्र तिवारी
पुस्तक  - मौसम-मौसम मन
पृष्ठ   112
मूल्य   रु- 299/-
प्रकाशक- श्वेतवर्ना प्रकाशन न्यू दिल्ली

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