ईश्वर और भगवान कौन,एक आध्यात्मिक विश्लेषण
डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
ईश्वर एक ऐसा विषय रहा है,जिस पर मानव सभ्यता सृष्टि के आरम्भ से ही विचार करती आयी है।सभी धर्मों में ईश्वर को सर्वोच्च शक्ति और नियंता के रूप में मान्यता दी गयी है।ईश,परमेश्वर,सर्वशक्तिमान,सर्वज्ञ,अजन्मा,अनादि,निराकार कहकर उसे हम पुकारते हैं।ईश का मतलब प्रभु स्वामी या नियंत्रण करने वाला और वर का मतलब सर्वोपरि होता है।
“एको देव: सर्वभूतेशु गूढ़:,सर्व व्यापी सर्व भूतान्तरात्मा”
अथर्ववेद में ईश्वर को ब्रह्म के रूप में वर्णित किया गया है।कठोपनिषद में ईश्वर का सम्बन्ध आत्मा और परमात्मा से किया गया है।ईश्वर को ही सर्वोच्च सत्ता और ज्ञान का स्रोत माना जाता है।मुंडोकपनिषद में ईश्वर सत्य ज्ञान और अनंनता का स्वरूप है।
श्वेताश्वर उपनिषद कहता है ईश्वर तिल में छिपे तेल की तरह से ही हमारे शरीर में छिपा हुआ है।उसे सत्य और तपस्या से अनुभव किया जा सकता है।ईशावास्य उपनिषद में कहा गया है कि यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर में व्याप्त है।”ईशावास्यमिदम सर्वम् यत् किंच जगत्याम जगत्”
सामवेद में ईश्वर को संगीत और भक्ति के माध्यम से स्तुति करने का विधान है।
देवी भागवत में देवी माँ को ईश्वर के रूप में निरूपित किया गया है।भागवत पुराण में कृष्ण को ईश्वर का रूप माना जाता है।विश्वकर्मा पुराण में भगवान विश्वकर्मा को सृष्टिकर्ता जगत नियंता माना जाता है।शिव पुराण में भगवान शिव को ईश्वर के रूप में मान्यता दी जाती है।विष्णु पुराण में भगवान विष्णु को ईश्वर रूप में माना गया है।
पतंजलि योग दर्शन में दिव्य आलोकित चेतना को ही ईश्वर की संज्ञा दी है,जिसे दुःख कर्म कामना प्रभावित न कर सके,उस पुरुष विशेष को ईश्वर कहते हैं।
अब आइए!भगवान शब्द की व्याख्या की जाय।भगवान दो शब्दों का समन्वय भग+वान
विष्णु पुराण 6/5/74 में भग का अर्थ इस प्रकार से बताया गया है।
एश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशस: श्रिय:।
ज्ञानवैराग्योश्चैव षणाम भग इति रणा।।
अर्थात् सम्पूर्ण ऐश्वर्य वीर्य(जगत को धारण करने की शक्ति विशेष) यश,श्री,समस्त ज्ञान और परिपूर्ण वैराग्य के समुच्चय को भग कहते हैं।वान का अर्थ होता है,धारण करने वाला।इस प्रकार उक्त छः गुण जिसमें हमेशा विद्यमान रहता है,उसे भगवान कहते हैं।
भग्यस्ति अस्मिन इति भगवान।
कुछ विद्वान ऐश्वर्य,धर्म,यश,श्री,वैराग्य और मोक्ष जैसे गुणों को धारण करने वाले को भगवान कहते हैं।
श्वेताश्वर उपनिषद 6/8 में भगवान को इस प्रकार वर्णित किया है,
“परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते स्वाभाविकि ज्ञान बल क्रिया च”
कुछ विद्वान मानते हैं कि भगवान शब्द केवल परम ब्रह्म परमात्मा के लिये प्रयुक्त होता है।
एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परम ब्रह्म भूतस्य वासुदेवस्य नान्यग:।।
कई विद्वान भगवान का विश्लेषण करते हुए उनके एक एक शब्द को इस प्रकार उद्धृत करते है।भ+ग+अ+वा+न का मतलब भ से भूमि,ग से गगन,अ से अग्नि,वा से वायु और न से नीर(पानी)लगाते हैं ,यानि पंच महाभूत ही भगवान है।
कुछ मनीषी कहते हैं कि भगवान में प्रकृति के कोई गुण नहीं है इसीलिए उसे निर्गुण निरंजनम आदि नामों से पुकारते हैं।
परासर मुनि ने भगवान शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि जो षड्ऐश्वर्य से युक्त हो,जिसमें सम्पूर्ण शक्ति,यश, धन,ज्ञान,सौन्दर्य,त्याग विद्यमान हो उसे भगवान कहते हैं।भगवान अपनी अन्तरंगता शक्ति के कारण अपरा शक्ति माया के अधीन नहीं हैं,अपितु पराशक्ति में विद्यमान रहते हैं।
कुछ विद्वान भगवान को जड़ को प्रवृत्त करने वाला चैतन्य मानते हैं।वह शोक,मोह,भूख,प्यास,बुढ़ापा,मृत्यु इन छः उर्मियों तथा शरीर के अस्ति,जायते,वर्धते,परिणमते,क्षय,विनाश इन छः विकारों से रहित है।भगवती श्रुति में भगवान को अनेक गुणों वाला बताया गया है।
कुछ मनीषी कहते हैं कि जिस प्रकार भक्त भगवान की पूजा करते हैं,वैसे ही भगवान भी भक्तों की पूजा करते हैं।भागवत पुराण4/9/1 में वर्णित है कि भगवान पूजारत बालक ध्रुव का दर्शन करने मधुवन गये।”मधोर्वनम भृत्यदिदृक्षया गतः”
अब आइए!विभिन्न दर्शनों,वेदान्तों,वेदों व गीता में ईश्वर के सन्दर्भ में क्या कहा गया है पर दृष्टिपात करें। सांख्यदर्शन कहता है ईश्वर चेतन है,अतः इस जड़ जगत का कारण नहीं हो सकता।पुनः ईश्वर की सत्ता किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती।या तो ईश्वर स्वतन्त्र और सर्वशक्तिमान नहीं है।या वह उदार और दयालु नहीं है।अन्यथा दुःख शोक वैष्यम्यआदि से युक्त इस जगत को क्यों उत्पन्न करता?यदि ईश्वर कर्म सिद्धांत से नियंत्रित है,तो स्वतन्त्र नहीं।और कर्म सिद्धांत को न मानने पर सृष्टि वैचित्र्य सिद्ध नहीं हो सकता।पुरुष और प्रकृति के अतिरिक्त किसी ईश्वर की कल्पना करना युक्तियुक्त नहीं है।
योगदर्शन कहता है कि योग प्रतिपादित ईश्वर जगत का कर्ता,धर्ता,संहरता नियंता नहीं है।साक्षात रूप में ईश्वर का प्रकृति से या पुरुष से या पुरुष के बन्धन या मोक्ष से कोई लेना देना नहीं है।” क्लेश कर्म विपाक आशय:,अपरामिष्ठ: पुरुष विशेष ईश्वर:”
न्याय दर्शन की मान्यता है कि ईश्वर इस जगत के निमित्त कारण एवम् प्रायोजक कर्ता है।वह कर्ता धर्ता संहरता ईश्वर है।अदृष्ट के संचालक के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करता है।
वेदांत मानता है कि ईश्वर व्यक्तिगत भी हो सकता है और हर युग में मानव रूप धारण कर सकता है।वेदान्त कहता है कि ईश्वर की सत्ता तर्क से नहीं सिद्ध की जा सकती।वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर केवल श्रुति प्रमाण से सिद्ध होता है।अनुमान की गति ईश्वर तक नहीं है।वेदान्त के अनुसार ईश्वर अनन्त अस्तित्व,अनन्त चेतना और अनन्त आनन्द का स्रोत है।
वेदों के अनुसार”एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति”यानि एक सत्य तत्व भगवान को विद्वान अनेक प्रकार से कहते हैं।वेद उसे परमेश्वर,परमपिता,परमात्मा,परम ब्रह्म आदि कहते हैं।वेद के अनुसार वह निराकार,निर्विकार,अजन्मा,अप्रकट,आदि और अनन्त है।सभी देवी देवता,पितृ,ऋषि,मुनि आदि उसी का ध्यान और प्रार्थना करते हैं।
गीता में ईश्वर को पुरुषोत्तम या उत्तम पुरुष कहा गया है।”गीता यह भी कहती है कि”ईश्वर: सर्वभूतानाम हृदयेशु अर्जुन तिष्ठति”अर्थ -हे अर्जुन ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में वास करता है।
महर्षि दयानन्द सरस्वति और आर्य समाज के नियमानुसार ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप,निराकार,सर्वशक्तिमान,न्यायकारी,दयालु,अजन्मा,अनन्त,निर्विकार,अनादि,अनुपम,सर्वाधार,सर्वेश्वर,सर्वव्यापक,सर्वन्तर्यामी,अजर,अमर,अभय,नित्य,पवित्र और सृष्टिकर्ता है।उसी की उपासना करनी चाहिए।
पूर्व ज़िला विकास अधिकारी
कई राज्य स्तरीय पुरस्कारों से विभूषित
मोटिवेशनल स्पीकर
वरिष्ठ साहित्यकार,वाराणसी
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