विश्व गुरु हम होवें कैसे?
(कविता)
घर समाज में फैली कटुता,
पहले जैसा प्यार नहीं।
कैसे ख़ुशी धरा पर आये,
जब ईमान से प्यार नहीं।।
स्वास्थ्य भला कैसे हो चंगा,
शुद्ध मिले आहार नहीं।
पैसे की लालच इतनी है,
उज्ज्वल कारोबार नहीं।।
घटतौली,विषतुल्य मिलावट,
मिटने का आसार नहीं।।
अपनी वाली करें सभी जन,
करुणा का उद्ग़ार नहीं।।
दया प्रेम मानवता के संग,
दिखता अब व्यवहार नहीं।
अपनी निज उन्नति की चाहत,
दूजे का उपकार नहीं।।
कैसे विश्व गुरु हम होंगें,
न्यायोचित जब आचार नहीं।
बच्चे अपने कैसे सुधरें,
अच्छी संगत-संस्कार नहीं।।
देश में कैसे बने एकता,
कुल में ही नैतिक सार नहीं।
जीवन जीना नहीं सरल,
सत्य आचरण आधार नहीं।।
परनिंदा ईर्ष्या का ताण्डव,
परहित,पर उपकार नहीं।
हर घर की हालत बिगड़ी है,
आपस में ख़ुद प्यार नहीं।।
बदअमली है पैर पसारे,
अब चरित्र आधार नहीं।
कितने और पतित हम होंगें,
सोंचें हम एकबार नहीं।।
रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
सुन्दरपुर वाराणसी
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