कर्मों की शुचिता से ही जीवन में उत्कृष्टता और आत्मोन्नति संभव : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा

कर्मों की शुचिता से ही जीवन में उत्कृष्टता और आत्मोन्नति संभव :      डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
कर्म का मतलब,चैतन्य द्रव्य की सोची समझी क्रिया से है।जड़ द्रव्य की क्रिया कर्म नहीं कहलाती। जैसे चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी का चक्कर लगाना क्रिया है,कर्म नहीं।हमारे आर्ष ऋषियों ने बताया है कि अनन्त कोटि जन्म में पूर्व में अर्जित किए हुए कर्म जो जीव में बीजरूप में स्थित रहते हैं ,उन्हें संचित कर्म कहते हैं।जो इस शरीर को उत्पन्न करके इस लोक में सुख दुःख आदि देने वाले कर्म है,जिनका भोग करने से ही वे नष्ट होते हैं,उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं।क्रियामाण कर्म वर्तमान में किए जाने वाले कर्म होते हैं।ये संचित व प्रारब्ध का आधार बनते हैं।क्रियामाण कर्म करने में मानव स्वतन्त्र है,ये शुभ और अशुभ दो प्रकार के होते हैं।ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णित है कि-अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृत कर्म शुभाशुभम्।अर्थात् शुभ और अशुभ कर्मों का फल हमें अवश्य भोगना पड़ता ही है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है-कर्म ही व्यक्ति के भाग्य व जीवन का निर्णय करते हैं।
स्कन्द पुराण(केदार खंड)में कहा गया है कि-
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनम द्वयम्
परोपकार:पुण्याय,पापम् पर पीडनम।।
अर्थात् अट्ठारह पुराणों में व्यास जी दो ही वचन हैं,परोपकार करना पुण्य और दूसरों को पीड़ा पहुँचाना पाप है।
राम चरित मानस में आचार्य तुलसी ने लिखा है-
परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
पर पीड़ा सम नहि अधमाई।।
योग वशिष्ठ 3/95/34 में वर्णित है-
एहिकम् प्राक्तनम वापि कर्म यचितम स्फुरत।
पौरुषौअसौ परो यत्नो न कदाचन निष्फल:।।
अर्थात् पूर्व जन्म और इस जन्म के किए गए कर्म फल रूप में अवश्य प्रकट होते हैं,मनुष्य का किया हुआ यत्न फल लाए बिना नहीं रहता।
मार्कण्डे पुराण(कर्मफल) में उद्धृत है कि,काँटा लगने से शरीर के एक भाग में पीड़ा होती है,परन्तु पाप कर्म के फल से तो शरीर और मन में निरन्तर शूल उत्पन्न होते हैं।
पराशर स्मृति कहती है कि पाप कर्म हो जाने से उसे छुपाना नहीं चाहिए।छिपाने से वह और बढ़ता है।पाप प्रकट कर देने से वह उसी प्रकार से विनष्ट होता है,जैसे चिकित्सा कराने के बाद रोग।
महाभारत वन पर्व में कहा गया है कि पाप हो जाने के बाद हृदय से पश्चाताप कर लेने से पाप से क्रमश: छुटकारा मिलता है,परन्तु भविष्य के लिए दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिए कि मैं अब किसी प्रकार का पाप नहीं करूँगा।शिव पुराण भी उल्लिखित करता है कि पश्चाताप ही पापों की परम निष्कृति है।
मनीषियों ने पश्चाताप से सभी प्रकार के पापों की शुद्धि होना बताया है।जिनके पापों का शोधन न हो उनके लिए प्रायश्चित करने का भी विधान बताया गया है।
भागवत पुराण में नन्द बाबा से भगवान कृष्ण कहते हैं कि-
कर्मणाजायते जन्तु:,कर्मनेव विलियते।
सुखम् दुःखम भयम क्षेमम,कर्मणाविपद्यते।।
अर्थात् कर्म से ही किसी जन्तु की पैदाइश होती है।कर्म से ही उसकी मृत्यु होती है।कर्म से ही सुख दुःख भय क्षेम की प्राप्ति होती है।
श्वेताश्वर उपनिषद में वर्णित है कि सकाम कर्म जीव को नाना प्रकार की योनियों में भ्रमण कराता है।
सकाम कर्म बंधक के जनक होते हैं और निष्काम कर्म बंधन के उच्छेदक होते हैं।कर्तापन या ममता का त्याग और आसक्ति या तृष्णा का त्याग कर किया गया कर्म निष्काम कर्म कहलाता हैं।
अब आइए! पाप कर्मों पर ध्यान केन्द्रित करें।कहते हैं कि हम सभी जीवन में दश तरह के पाप करते हैं।  “पापकर्मेति दशधा” वह दश पाप कौन कौन से हैं।
शरीर से हम सभी तीन तरह के पाप कर्म करते हैं।पहला हिंसा दूसरा चोरी तीसरा व्यभिचार।
हिंसा के सन्दर्भ में हमारे ऋषियों ने कहा है-मा हिंसायात् सर्वभूतानी
यानि किसी भी जीव की हत्या नहीं करनी चाहिए।परन्तु जरा सोंचें हम दिन भर कितने जीवों की हत्या करते हैं तो कैसे जीवन सुधरेगा।चोरी के बाबत हमारे मनीषियों ने कहा है कि किसी की बस्तु को बिना बताए नहीं लेना चाहिए।यहाँ तक की अगर कोई कही पर अपना विचार प्रकाशित कराया है,तो उसे भी अपने नाम से प्रकाशित कराना भी एक प्रकार की चोरी ही है।व्यभिचार के अन्तर्गत पर पुरुष पर स्त्री गमन यानि दूसरे स्त्री व दूसरे पुरुष के साथ सहवास करना व्यभिचार कहलाता है।उक्त प्रकार के पापों से बचना चाहिए।
अब आइए!वाणी से किए जाने वाले चार पापों पर चर्चा करें।वाणी से पहला पाप हम सभी असत्य वचन बोलकर करते हैं।दूसरा पाप कटु वचन बोलकर करते हैं।हम सभी अगर मनन चिंतन करें तो पाते हैं कि जितने भी प्रकार के लड़ाई झगड़े होते हैं वे कटु वचन से पैदा होते हैं।घर परिवार तहस नहश हो जाते हैं।भाई भाई का दुश्मन हो जाता है।अपने पराये हो जाते हैं।इतना बड़ा महाभारत भी दुर्योधन के कटु वचन के कारण ही घटित हुआ।वाणी से तीसरा पाप हम सभी निष्प्रयोज्य बकवास कर करते हैं,जैसे कहीं बैठ गये तो,अपनी डींग हॉकना।यह कहना मैंने ये तीर मार लिया।मैंने उसे मज़ा चखा दिया वग़ैरह वग़ैरह।वाणी से चौथा पाप हम सभी एक दूसरे की निंदा करके करते हैं।जब कि हमारे मनीषियों ने समझाया है कि यदि जीवन में और पाप कमाना हो तो दूसरों की निंदा शुरू कर दीजिये।परन्तु आज सच्चाई यह है कि हम सभी एक दूसरे की निंदा में मशगूल हैं।पढ़े लिखों की तो और हालत बदतर है।
अब आइए मन से किये जाने वाले पाप पर ध्यान दें।मन से पहला पाप जो हम सभी करते हैं वह है परद्रोह करना जैसे यदि हम किसी का शारीरिक नुक़सान कर नहीं पाते तो उन्हें पानी पी पी कर कोसते हैं।श्राप देते हैं।यह मन से किया जाने वाला पहला पाप है।मित्रों प्रकृति के क़ानून को हमें अपने हाथ में नहीं लेने चाहिए।क्योंकि कहते हैं कि “जैसी करनी वैसा फल।आज नहीं तो निश्चय कल।”
दूसरा मन से जो पाप करते हैं वह है परद्रव्याभिलाषा यानि दूसरों के धन दौलत को बिना श्रम अपने पास बुलाना,लेना।आज किसी भी सरकारी दफ़्तरों के कुछ न कुछ कर्मचारी/अधिकारी घूस लेते पकड़े जाते हैं।
तीसरा मन से किया जाने वाला पाप दूसरों के गुणों में अवगुणों को देखना और निर्दोषों के प्रति दुर्भावना पूर्ण दृष्टि/कुदृष्टि रखना।
अतः उक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमे यदि आध्यात्मिक होना है तो उक्त दश पाप कर्मों से विरत रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।
अब आइए संक्षेप में पुण्य अर्जित करने के तरीक़ों को आत्मसात् करें।जीवन में लोगों का अभिवादन कर,बड़े बुजुर्गों की सेवा कर,संकट में किसी की रक्षा कर,उपयुक्त को दान देकर हम पुण्य के भागी बनते हैं।
पुण्य कमाने के लिए हमे त्यागी जीवन जीने का अभ्यास करना चाहिए।सत्याचरण पर बल देना।असत्य वचन से दूर रहना।हमारे महापुरुषों का जीवन भी सदैव यैसा ही रहा है।

लेखक, पूर्व ज़िला विकास अधिकारी कई पुस्तकों के प्रणयन कर्ता,कई राज्य स्तरीय सम्मानों से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार,ऑल इण्डिया रेडियो वाराणसी के नियमित वार्ताकार, तथा शिक्षाविद है,जिसके नाम से शिक्षा संकाय,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोधार्थियों को बेस्ट पेपर अवार्ड भी दिया जाता है।

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने