सियासी दुकानें

सियासी दुकानें - 
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चौसर की चतुर चाल चलकर, 
निरीह, नासमझों को रिझाने। 
धवल वस्त्र धारण कर धरा पर, 
अब अवतरित हुई सियासी दुकानें। 

असीमित वादे का सुंदर पिटारा रख, 
आम आदमी का सुख ,चैन छीनने। 
अपने को सत्यवादी,सच का प्रहरी बता, 
हर युक्ति लगा धन - धान्य लूटने। 

पिछले की पिछली हजारों शिकायत कर, 
खुद को इंसाफ़ का देवता बताते  हैं। 
अपना हर सपना ज्योंहि देखें पूर्ण होते, 
जनता को भूलकर सिर्फ़ उल्लू बनाते हैं। 

एक अवसर की भीख माँगने वाले, 
खुद को अवाम का रहनुमा बताते हैं। 
ओस जैसे सूर्य निकलने पर लुप्त होती, 
पाँच वर्ष तक अपना मुँह नहीं दिखाते हैं। 

कवि - चंद्रकांत पांडेय,
मुंबई / महाराष्ट्र 

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