आवाहन (कविता)

आवाहन
         (कविता)
हो दृढ़ प्रतिज्ञ सब अपने,
अपनी संस्कृति अपनाए।
अपने कुल का यश गौरव,
हम पुनः धरा पर लाए।।

सदियों से करम के योगी,
देते आये हैं सुख साधन।
अपने कुल का अंधियारा,
बन शिक्षित स्वयं भगाए।

अज्ञान अविद्या भय का,
जब संकट घोर हटेगा।
स्वयं आप्त दीप बन अपना
निर्मल प्रकाश फैलायें।

मनु मय त्वष्टा सब भाई,
शिल्पी दैवज्ञ को जोड़े।
कर आत्म निरीक्षण अपना,
अपनों को गले लगायें।

जो है समाज की कटुता,
उसको सब दूर भगायें।
यश मान प्रतिष्ठा अपना,
मज़बूती से हम पाँयें।

बस अपनी संस्कृति से ही,
आएगा कुल में सबेरा।
केवल और बस केवल,
अपना कुल गुरू बनायें।

हम युगों युगों से ज्ञानी,
कौशल व यन्त्र प्रणेता।
हम अपनी श्रम शक्ति से
हैं जग उपवन को सजायें।

चिंतन शिविरों से हमसब,
संस्कृति को प्रखर बनायें।
अपने समाज की कीर्ति,
हर वर्गों में खूब फैलायें।

रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
             सुन्दरपुर, वाराणसी

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