अन्न, जल और उत्तम वाणी, जीवंत जगत की जीवन धारा : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा

अन्न, जल और उत्तम वाणी, जीवंत जगत की जीवन धारा : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
पृथिव्याम् त्रिणी रत्नानि, अन्नम, जलम, सुभाषितम। पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं, अन्न है, जल है और उत्तम वाणी। 
मित्रों!
पृथ्वी लोक में आश्रय लेकर रहने वाला जो भी प्राणी है, वो अन्न से ही उत्पन्न होते है, अन्न खाकर जीते है, और अंत में अन्न में ही विलीन हो जाते है।अतः सभी भूतों में अन्न ही श्रेष्ठ है।इसीलिए कहते है की, अन्न को ब्रह्म भाव से ग्रहण करना चाहिए। जल के सन्दर्भ में तो यहाँ तक कहा गया है कि जल ही जीवन का आधार तत्व है।वाणी के सन्दर्भ में हमारे आर्ष ऋषि,आचार्य दण्डी ने कहा है कि “वाचमेव प्रसादेन लोक यात्रा प्रवर्तते”अर्थात् वाणी के प्रसाद से ही हमारी भौतिक क्रियाएँ जारी रहती हैं।
   हमारे पौराणिक आख्यानों में अन्न को धर्म का आशीष भी कहते है।अथर्व वेद में वर्णित है,
   समानी प्रपा सह वो अन्न भागः। यानि पेय व भोज्य पदार्थ
   समान हो,स्वास्थ्य वर्धक भोजन पर सबका समान अधिकार होना चाहिए।हमारे धर्म ग्रंथों में यह भी उल्लिखित
   है कि जो भी वस्तु मानव जीवन को सुखद एवं विकासमय बनाने में सहायक होती है,वह श्रद्धेय मानी जाती है।इसीलिए हमारे मनीषियों ने अन्न में देवत्व का
   निरूपण किया है।उसे ब्रह्म की संज्ञा दी है, व "प्राणों वा
   अन्नम"कहा है।अन्न केवल हमारी क्षुधा ही शांत नहीं करता बल्कि इससे हमारा मन भी बनता है,जो हमारे जीवन
   में शांति,अशांति का कारण भी बनता है।इसीलिए अन्न
   की शुद्धि पर हमारी संस्कृति विशेष ध्यान देती है,कहते
   भी है,जैसा खाए अन्न,वैसा होवे मन।
   आहार का संबंध हमारे शरीर,मन,बुद्धि,चित्त से भी
   माना जाता है।
   अन्नेन जातानि वर्धन्ति।अन्न से ही सभी प्राणी वृद्धि पाते है,
   अन्नम सर्वभूतानम ज्येष्ठम।अन्न सभी प्राणियों में ज्येष्ठ है।
   अन्नम ब्रह्मेति ब्यजनात।अन्न को ब्रह्म समझो।
   इसीलिए अन्न को सब प्राणियों की औषधि भी मानते है।
   वास्तव में यदि अन्न पापमय हो,अशुद्ध हो तो उसका प्रभाव हमारे मन,बुद्धि, आत्मा,चित्त पर पड़ता है।जो अन्न
   चोरी,भ्रष्टाचार,अनाचार,पापाचार से गलत तरीके से अर्जित किया गया हो,उससे शारीरिक पुष्टि भले ही हो,परंतु
   आत्मा व चित्त की तुष्टि नही होती।
   हम सभी को जीवित रहने के लिए अन्न व भोजन की
   आवश्यकता होती है,भोजन से अनेक तरह से पोषण,
   विटामिन्स,मिनरल्स प्राप्त होते है,जो शरीर व मानसिक
   विकास हेतु अति आवश्यक होते है।
   आज हम सभी आधुनिकता के दौर में अन्न का बहुतायाद
   अनादर कर रहे है।आज भारत में सत्तरह प्रतिशत भोजन
   बर्बाद हो जाया करता है,2019 के एक आंकड़े के अनुसार एक वर्ष में,687 लाख टन भोजन की बरबादी होती है।हम जरा सोचें! यदि ऐसे ही भोजन की बरबादी होगी तो खाद्यान्न का संकट व्याप्त होगा ही।इसी कारण
   आज भी भारत सरकार 70 लाख टन अनाज विदेशों
   से मंगाती है।
   हमारी संस्कृति कहती है की हम जितना अन्न बरबाद
   करते है उसे उतने अन्न के लिए कभी न कभी तरसना
   पड़ता है।अतः अन्न का एक भी कण हमे बरबाद नहीं
   करना चाहिए।बढ़ती सफर संस्कृति और आधुनिकता
   के नाम पर आज हम अन्न का बहुतायाद बरबादी कर
   रहे है,जिसे रोकने की पूरी कोशिश की जानी चाहिए।
   आयुर्वेद में भोजन करने के नियमों की चर्चा की गयी
   है। "अग्ने तौलस्य प्राशान"यानि भोजन को परिमित,
   तौलकर करना चाहिए।अति भोजन से अपच,अजीर्ण,
   बद्ध कोष्ठता,रक्त विकार होने की संभावना बढ़ जाती
   है।अतः हमें स्वल्पाहारी होना चाहिए,स्वल्पाहार से आयु
   लंबी होती है।बल प्राप्त होता है।संयम सध जाता है।शारीरिक व मानसिक शक्तियां प्रदीप्त होती है।सांसारिक
   सुख प्राप्त होता है।व्यक्ति निरोगी होता है।
   हमारी संस्कृति में भोजन करने से पहले मंत्र पढ़ कर
   भोजन करने का विधान है।
   त्वदियम वस्तु गोविंद,तुभ्यमेव समरपयेत ।
   गृहाण सुमुखोभूत्वा प्रसीद परमेश्वरम।।
   क्योंकि चिंतन करे तो पाएंगे कि ईश्वर ही सबके पेट
   में बैठकर खाते है,पचाते है।
   स्कंद पुराण में वर्णित है की बिना स्नान किए भोजन
   ग्रहण नही करना चाहिए।
   ब्रह्मवावर्त पुराण में उद्धृत है,,,
   अन्नम ब्रह्मा, रसो विष्णु,भोक्ता देवो महेश्वरः।।
   गीता में कहा गया है,मैं ही समस्त प्राणियों में स्थित रहने
   वाला प्राण एवं अपान से युक्त वैश्व वानर अग्नि रूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं।
   अहम वैश्ववानरो भूत्वा प्राणीनाम देहमाश्रितम।
   प्राणपान समायुक्त, पचान्न चतुर्विधम।।
   अतः भोजन करने से पहले दोनो हाथ व पैरों को धो
   कर भोजन ग्रहण करना चाहिए।
   अब प्रश्न उठता है, भोजन कैसा हो, तो हमारी संस्कृति
   कहती है कि "पथ्यम, पूतम, अन्ययास्यम"तात्पर्य भोजन
   पथ्यकारी हो, स्वभाव व जाति से पवित्र हो, तथा तैयार
   करने में भी ज्यादा श्रम ,समय न लगे।
   भोजन किवाड़ व परदे के बिना नहीं करना चाहिए।
   भोजन करते समय निम्नांकित की नजर नहीं पढ़नी
   चाहिए, दीन, हीन, भूखे, पापी, नपुंसक, रोगी, मुर्गी, कुत्ता
   वगैरह की दृष्टि भोजन पर नहीं पढ़नी चाहिए।
   भोजन करने से पहले इसे भी संज्ञान में रखना चाहिए।
   भोजन पवित्र स्थान पर करें।
   भोजन शिर ढक कर करना चाहिए।
   जूता चप्पल, खड़ाऊ पहन कर भोजन न करे।
   नाव में भोजन नहीं करना चाहिए।
   टूटे फूटे बर्तनों में भोजन न करे।
   हाथ पर लेकर भोजन न करे।
   भोजन बनाने वाला प्रसन्नचित होकर भोजन बनाए।
   भोजन साफ सुथरे स्थान पर बनाना चाहिए,तभी उसे
   भगवत प्रसाद कहा जा सकता है,तथा उसे ग्रहण करने
   से आत्म संतुष्टि प्राप्त होती है।शुचिता व शुद्धता के अंतर्गत मासिक धर्म में आई महिला के हाथ का भोजन
   चित्त प्रसाद के लिए हानिकारक होता है।
   केवल मिट्टी व पानी से शुद्ध की हुई वस्तु ही शुद्ध नहीं
   होती,अर्थ शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है अर्थात पवित्र धन
   से प्राप्त हक की वस्तु ही शुद्ध मानी जाती है।इसीलिए
   ब्रह्मवावर्त पुराण के वर्णित है कि आहार शुद्ध होने पर
   अंतःकरण शुद्ध होता है,इससे ईश्वर में स्मृति दृढ़ होती है,
   तथा हृदय की समस्त अविद्याजनित गांठे खुल जाती है।
   मित्रों! भोजन का भाव से अधिक संबंध होता है।स्वामी
   राम सुख दास ने अपने महनीय विचार व्यक्त किए है,,,,
   आइए विचार करें।
   भोजन कराने वाले,के भाव का असर पढ़ता है,यदि
   भोजन कराने वाले को जितनी प्रसन्नता होगी,वह
   भोजन उत्तम दर्जे का होगा।
   भोजन करने वाला यह सोचें कि आज मुफ्त में मिल
   गया तो वह भोजन माध्यम दर्जे का होता है।
   यदि कोई भोजन कराने वाला सोचे की यह व्यक्ति
   आ गया अब भोजन बनाना पढ़ेगा,तो वह भोजन
   निकृष्ट दर्जे का होता है।
   हमारी खाद्य संस्कृति बहुत ही प्राचीन उन्नत स्वास्थ्य
   प्रद,स्वास्थ्यवर्धक आहार प्रणाली मानी जाती है,जो
   परिपूर्ण,वैज्ञानिक व पोषण की संबाहक भी रही है।
   यही नहीं हमारे ऋषियों,मनीषियों,तत्वदर्शियों ने सभी
   को शांति समाधान एवं तेजस्विता पूर्वक अन्न कैसे मिले इसको भी व्यवस्थित ढंग से प्रतिपादित किया है।
   उत्क्रांतिवाद का सिद्धांत कहता है की जगत का पहला
   गृहस्थ किसान ही हुआ है।उससे पहले लोग कंद मूल
   फल खाकर जीवन यापन करते रहें हैं।कृषि कार्य जब
   शुरू हुआ तभी से हम सभी को अन्न की प्राप्ति हुई है।
   इसीलिए तो कहते है कि हमारी संस्कृति अन्न व कृषक
   आधारित संस्कृति है।

लेखक- पूर्व जिला विकास अधिकारी, कई राज्य स्तरीय सम्मानों से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार,मोटिवेशनल स्पीकर,आल इण्डिया रेडियो वाराणसी के प्रमुख वार्ताकार, कई पुस्तकों के सृजनकर्ता, एक शिक्षाविद हैं, जिनके नाम से शिक्षा संकाय काशी हिन्दू,विश्वविद्यालय के शोध छात्रों को डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा बेस्ट पेपर अवार्ड भी दिया जाता है।

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