काशी की महिमा (कविता)

काशी की महिमा
                    (कविता)
काशी पुण्य भूमि को रचकर, है परितृप्त विधाता ।
काव्य कला संगीत धर्म का, फहरे यहां पताका l।

कभी आनंदवन कहलाया, बाद हुई यह काशी।
बृहद चरण महाजनपद बन, हुआ बनारस शासी।।
वरुणा असी बीच वाराणसी, शोभित गंगा माता।  
काशी पूर्ण भूमि को रच कर,,,,,

जैन बौद्ध और धर्म सनातन, इनका कोई न सानी।
सब  पंथों की रही वाटिका, ध्यानी और विज्ञानी।।
शस्त्र शास्त्र संयुक्ति यहां पर, यही सुयश बिखरता। 
 काशी पुण्य भूमि को रच कर,,,,,,

यहां प्रसाद प्रेमचंद्र धूमिल, हंस-हंस दर्द पिया है।
हरिश्चंद्र ने इसी धरा से, स्व- प्रण पूर्ण किया है।।
धर्मशास्त्र अध्यात्म सभी को, नित यह राह दिखाता।
काशी पुण्य भूमि को रच कर,,,,,,

पैदा हुए  विश्रुत पंडित जन, संत मुनि अति ज्ञानी ।
मरण मोक्ष की  इच्छा लेकर, बसते यहां पर ध्यानी।।
पूज्य भगीरथ के प्रयास का, पुण्य यहां इतराता ।
काशी पुण्य भूमि को रच कर,,,,,,
   
 राण, साड़, सन्यासी सब तो , पाते यहां खुशी हैं। 
मिलता रोज निवाला उनको, कोई नहीं दु:खी है।।    
हर कण में जहां शिवत्व का, भाव सदा जग जाता। 
काशी पुण्य भूमि को रच कर,,,

 सांसों में है शुभाशीष, चिंतन में सबका हित है। 
 पतित पावनी गंगा के तट , शतक घाट शोभित है।।
 साधु संत ऋषि मुनियों का, दरश यहां मिल जाता।
 काशी पूर्ण भूमि को रच कर,,,

 धर्म-कर्म अध्यात्म ज्ञान की, वाणी यहाँ ऋतंभरा।
  सात बार नौ त्योहारों की, निभती रही परम्परा।।
  काशी में ही मनुज मुक्ति का, स्वर सदा हर्षाता।।
  काशी पुण्य भूमि को रच कर, है परितृप्त विधाता।

 रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
 सुंदरपुर वाराणसी

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