जनवरी के ठंडी
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माह दिसम्बर अति ठंड लगे ,
दिन बीति जाय काँपत- काँपत ।
केहू स्टेटर पहिरे,केहु कंबलओढे़ ,
केहु बितावत आग तापत-तापत ।
जेकरे घर,पास नाहीं गरम कपड़ा ,
भगवान ही ओकर करैं रक्षा ।
सर्दी के मारे काँपै देहियाँ ,
बिन कंबल ,रजाई के कौन सुरक्षा?
खूब ओस पडै़ , सगरौं कुहरा घेरै ,
दिनवां,रतिया जस अन्हीयार लगै ।
दुपहर के समय नहि घाम दिखै ,
तीर जस समीर भिनसार चलै ।
किसान ऐसे में अराम कहाँ पावैं ,
मेहनत से करैं ,खेती किसानी।
बाल - गोपाल भी कहाँ मानै ,
घर बाहर निकलि , करैं शैतानी।
कवि- चंद्रकांत पांडेय,
मुंबई / महाराष्ट्र