मनोविकारी व्यवहारों को आमंत्रण देती नार्सिसिस्टिक प्रवृत्तियां

मनोविकारी व्यवहारों को आमंत्रण देती नार्सिसिस्टिक प्रवृत्तियां  
डॉ विनोद कुमार शर्मा, (नैदानिक मनोवैज्ञानिक), असिस्टेंट प्रोफेसर, निदेशक - मानसिक स्वास्थ्य परामर्श केंद्र, मनोविज्ञान विभाग, संताल परगना कॉलेज सह नोडल ऑफिसर, मेंटल हेल्थ मिशन इंडिया।                                                  नार्सिसिस्टिक अर्थात स्वप्रेम की भावना एक ऐसा मनोविकारी व्यक्तित्व एवं यौन विचलित व्यवहार है जहां स्वयं के प्रतिमाओं के प्रति अत्यधिक मोहित होते है। देखकर खुश होते है। और अपने को सुंदर बनाए रखने के लिए दिन रात लगे रहते है। यह व्यक्तित्व विकार का एक ऐसा रोग प्रकार है जिसमें व्यक्ति स्व केंद्रित विचारों एवं इच्छाओं की परिधि में बंध जीवन जीते है। ऐसे प्रवृत्ति के लोग इड (आनंद के नियम) के सिद्धांत से प्रभावित होते है जहां उसके जीवन में सामाजिक मानकों का उतना अधिक महत्व नहीं रह जाता है। वो सामाजिक गतिविधियों से अलग हो आत्मकेंदित प्रवृत्ति का बन जाते है और अक्सर स्व निर्मित विचारों व कल्पनाओं के संसार में गोते लगाते रहते है। ऐसे लोग मनोविक्षिप्त किस्म के जीवन जीते है जिससे न केवल परिवार का सुख - चैन और संबंध बिगड़ते है बल्कि समाज और प्रशासन भी ऐसे व्यवहारों से तनाव में रहते है। ऐसे नॉर्सिसिटिक प्रवृत्ति के लोग दूसरों के प्रति सम्मान न रख ख़ुद के प्रति इतना अधिक आशक्त होते है कि उन्हें दुनिया की हर चीज या शय न केवल छोटी व तुच्छ दिखाई पड़ती है बल्कि वो आनंद उन्मुखी हो जाते है जिस कारण वैवाहिक जीवन में खतरे में आ जाता है और तलाक जैसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती है। ऐसे लोग झूठ बोलने, धोखा देने, चोरी करने जैसे व्यवहारों के आदि बन जाते है। ऐसे व्यक्ति स्व- प्रेम का सहारा एक रक्षा प्रक्रम (डिफेन्स मैकेनिज्म)के रूप में भी करते है जहां वो अपनी हीनता या अंतर्द्वंद्ध की भावना , दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों, आदि से बचने के लिए अचेतनत: सामाजिक पलायन जैसे लक्षणों का सहारा लेते है। ऐसे लक्षणों के शिकार लोगों में रूपांतरित विकार ( हिस्टीरिया) के तरह यहां भी यौन भावना भी दमित होती है जो इच्छा पूर्ति को मौके की ताक में होती है। ऐसे व्यक्ति यौन सुख के लिए दूसरे पर दबाव भी बनाते है। आक्रमक हो जाते है। यौन इच्छा की रुकावट या बाधा में हत्या तक कर बैठते है। कुछ हदतक बलात्कार जैसी घटनाओं का निर्धारण भी इन्हीं वजहों से भी होता है। युवा हो या अल्प वयस्क सभी ऐसे रोग लक्षणों के शिकार होते है। ऐसे रोग लक्षणों को किशोरावस्था के पूर्व ही नियंत्रण किया जाना चाहिए जिससे लैंगिक अपराध जैसे घृणित व्यवहारों में भी कमी लाया जा सके। भारत में हाल के वर्षों में ऐसे विकृत व्यवहारों में प्रचलन 2 प्रतिशत से 16 प्रतिशत तक का वृद्धि दर्ज किया गया है। इसमें ट्वेंटीज उम्र समूह के लोग ज्यादा प्रभावित हो रहे है और जो यह महिलाओं के वनिस्पत पुरुषों में ज्यादा देखने को मिल रहे है। मनोविकारी लोगों में निम्न किस्म के लक्षणों का प्रत्यक्षीकरण होता है:
नार्सिसिस्टिक व्यक्तित्व विकार के लक्षण:

   स्व प्रेम व प्रशंसा की प्रबल इच्छा रखना, आत्म-सम्मान की चाहत रखना,                     श्रेष्ठता की भावना,  लैंगिक कल्पना और इच्छाओं का विचरना, सौंदर्य आदि के बारे में कल्पनाएं करना, दूसरों से प्रशंसा और ध्यान पाने की चाहत रखना, उम्मीदें करना, अवसरों पर विशिष्ट किस्म के व्यवहार की अपेक्षा रखना ,और अधिकार की भावना प्रदर्शित करना , मौका का फायदा उठाने की जिद्द में रहना, सहानुभूति भावना (एमपीथी)की कमी का होना,                                  व्यवहारों का पुनर्बलन और पुनरावृत्ति ,  दूसरों की भावनाओं का अनदेखी करना ,  असंवेदनशील एवं अति आक्रमणकारी व्यवहार प्रदर्शित करना ,  मनोग्रस्त स्वभाव रखना आदि प्रमुख लक्षणों के अतिरिक्त 
 दूसरों के प्रति ईर्ष्या या नफ़रत जैसी दूर भावना के होने सहित अहंकारी या उच्चता का व्यवहार को रखना इसके विशिष्ट लक्षण है। यही कारण है कि लोग छेड़खानी , यौन अपराध, बेइमानी , भ्रष्टाचार आदि अशोभनीय व्यवहारों से लेकर हर वो दिल दुखाने वाली हरकतें करते है जिसको सबको ऐतराज होता है। यहां तक कि स्वार्थ सिद्धि हेतु जघन्य अपराध व्यवहार करने से भी भय नहीं खाते है। इच्छाओं की पूर्ति हेतु अक्सर नैतिक मर्यादाओं की सीमा भी लांघ जाते है। ऐसे में हत्या, लूट, दुष्कर्म जैसे घृणित व्यवहारों को अंजाम देना जीवन का एक हिस्सा मान बैठते है। ऐसे लोग जेल जाकर भी जल्द सुधरते नहीं है।  

क्या है कारण ? 
मनोवैज्ञानिकों द्वारा इसके निम्न कारण बतलाए जाते है:               जैविक: आनुवंशिकी: रोग लक्षणों का एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में हस्तांतरित होना,        मां - बाप के किसी एक परिवार में ऐसे रोग लक्षणों का परिवारिक इतिहास होना,                             समाज - मनोवैज्ञानिक कारक: 
बाल्यकाल में सामाजिकरण के दौरान किसी आघात का अनुभव होना। उपेक्षा, दुर्व्यवहार, या अत्यधिक प्रशंसा का अनुभव करना, मानकविहीन या दोषपूर्ण पारिवारिक जीवन शैली,             
दोषपूर्ण सामाजिक संबंध,  तिरस्कार ,  भावनाओं व इच्छाओं का दमन ,                                       पुअर पेरेंटिंग , सोशल मीडिया का दुष्प्रभाव , मिथ्या एवं विचलित व्यक्तित्व नकल, आदि प्रमुख वजहें देखने को मिलती है । सांस्कृतिक कारक में             अभिव्यक्ति के बहाने स्व - प्रचार पर सांस्कृतिक जोर देना। 

क्या है मनोवैज्ञानिक उपचार ?
परामर्श एवं मनोचिकित्सा: परामर्श किसी भी रोग प्रकार के वास्ते प्रिवेंशन का कार्य करता है। बीमारी गंभीर और जटिल न बने इसके अर्ली इंटरवेंशन के तौर पर व्यक्ति को उचित परामर्श की सलाह लेने हेतु अभिप्रेरित किया जाता है। 
मनोवैज्ञानिक चिकित्सा: इसमें संज्ञानात्मक-व्यवहार थेरेपी द्वारा रोगी के नकारात्मक चिंतन , तर्क, कुंठित विचार आदि को परिवर्तित कर उसके व्यवहारों में अपेक्षित बदलाव लाया जाता है। व्यक्ति के अचेतन में दमित कुंठा या दुर्भावना को निकाल बाहर करने हेतु मनोविश्लेषणात्मक थेरेपी का सहारा लिया जाता है।  अन्य अध्यात्म रणनीतियां: मनन, आत्म-चिंतन, आदि के सहयोग से उसमें सहानुभूति भावना को विकसित करने का प्रयास किया जाता है। 
सेल्फ हेल्प तकनीक एवं फेमिली थेरेपी आदि के द्वारा भी इसपर नियंत्रण पाया जा सकता है। 

समाचार व विज्ञापन के लिए संपर्क करें। WhatsApp No. 9935694130

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने