नज़रों का खेल
मेरी नज़रों को अपनी नज़रों से एक नज़र तो देख।
यूँ नज़रअंदाज करने की नज़रों से नज़रों को न देख।
मेरी नज़रें तेरी नज़रों को देखने के लिए तरसती हैं,
सीधी नज़रों से नहीं तो तिरछी नज़रों से एक नज़र देख।
मेरी नज़रें तेरी ही नज़रों का नज़राना देखना चाहतीं हैं,
पलकों को उठा, मेरी नज़रों को अपनी नज़रें मिला के देख।
नज़रों को कहीं नज़रों की ही नज़र ना लग जाए ऐ हमदम,
इन नज़रों को तू उस कातिल नज़रों से बिल्कुल भी ना देख।
ये नज़रें बस तेरा ही नज़राना नज़र आए ऐसा चाहतीं हैं,
तू इन नज़रों की नज़र में बस जाए, ऐसी नज़र से देख।
ये नज़रें भी ज़ालिम है हद से ज्यादा उधम मचाए रहतीं हैं,
हरदम तेरी नज़रों की तलाश में नजरें फिराए रहतीं हैं।
नज़रों के नीचे वो तेरा सुर्मा लगाना, मेरी नज़रों को भा जाता है,
तेरी नज़रों के संग ये नज़रों का खेल खेलकर मज़ा आ जाता है।
रचनाकार - मनीषा जायसवाल
कोलकाता
Tags:
संपादकीय / कविता