अन्ध विश्वास और पाखण्ड से परे, वैज्ञानिक सोच पर आधारित है, विश्वकर्मा संस्कृति : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा

अन्ध विश्वास और पाखण्ड से परे, वैज्ञानिक सोच पर आधारित है, विश्वकर्मा संस्कृति : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा 
विश्वकर्मा संस्कृति ही लोक जीवन व विश्व का आलोक रही है।विश्वकर्मा संस्कृति,अतीव प्राचीन संस्कृतियों में एक है, जो सभी संस्कृतियों की मूल रही है, परन्तु ग्रंथकारों ने इसकी चर्चा करना उचित नहीं समझा तथा बाद के इतिहास वेत्ताओं ने भी उसे ठीक ढंग से वर्णित नहीं किया है। वैदिक काल में मात्र शिल्पाचार्य ही यज्ञ कराने का अधिकारी हुआ करता था क्योंकि यज्ञ वेदियाँ कोई और नहीं, केवल विश्वकर्मा आचार्य ही नाप तोल कर बनाने में सक्षम थे। इसी कारण शिल्प कर्म को यज्ञ कर्म भी कहा गया है।इसका प्रमाण वाल्मीकि रामायण (1/13/16) व स्कन्द महापुराण का नागर खण्ड 6/13-14 में भी उद्धृत है। स्वामी दयानन्द सरस्वति ने भी इसकी पुष्टि संस्कार विधि में किया है।आज जो भी शिल्प विश्व में दिखाई देता है वह सब भगवान विश्वकर्मा जी की ही देन है । ”यत् किंचित् दृश्यते शिल्पम् तत्सर्वम विश्वकर्मकम्” सामान्यतः जिस कर्म के द्वारा विभिन्न पदार्थों को मिलाकर एक नवीन पदार्थ या स्वरूप तैयार किया जाता है,उस कर्म को शिल्प कहते हैं। विश्वकर्मा धीमानों ने लगभग 12000 शिल्पों का ईजाद किया है, जिसमें खुरपी व हल के आविष्कार से कृषक संस्कृति का श्रीगणेश हुआ जिससे अन्य संस्कृतियों और सभ्यताओं को विकसित होने में मदद मिली। पहिए का आविष्कार रथकारों ने किया जिससे पूरी परिवहन व्यवस्था या यूँ कहें कि पहिए पर संसार ढोल रहा है ।इसलिए कहते हैं कि संसार के समस्त जीव शिल्प विज्ञान के द्वारा जीवन यापन करते हैं,जिसके आविष्कारक भगवान विश्वकर्मा और उनकी संतानें रही हैं।कारण यही रहा है की तमाम अवरोधों के बावजूद भी आज भगवान विश्वकर्मा की अहमियत सभी वर्गों सम्प्रदायों में कायम है।
पौराणिक आख्यानों में यह भी वर्णित है कि जब न पृथ्वी थी,न अग्नि थी,न वायु था,न आकाश था,न मन था,न बुद्धि थी,और न घ्राण आदि इन्द्रियाँ भी नहीं थीं,न ब्रह्मा थे,न विष्णु थे,न ही शिव थे तब कोई देवता तारक नहीं था,उस सर्व शून्य प्रलय में समस्त ब्रह्माण्ड को अपने में ही आवृत(समाये हुए)सबका पूज्य केवल एक ही विश्वकर्मा परम ब्रह्म परमेश्वर विद्यमान थे।यह उल्लेख विश्व ब्रह्म पुराण अध्याय-२ में वर्णित है।”श्रुति-विश्वमेव कर्मणा जायते स विश्वकर्मा स परम ब्रह्म स जगतकर्ता बभुवेति “ का भी वर्णन विश्व ब्रह्म पुराण में सविस्तार उद्धृत है,तो आप स्वयं समझ सकते हैं कि विश्वकर्मा संस्कृति कितनी वैदिक है जिसे जानबूझकर प्रसार से रोका गया,जब कि विश्वकर्मा संस्कृति से ही सब सभ्यताओं और संस्कृतियों का कालान्तर में विकास हुआ।
मध्य युग यानि पाँचवी से पंद्रहवीं शताब्दी तक मठ मंदिर महल के अलावा अनेक संरचनायें,वास्तु कला,स्थापत्य कला,हस्त शिल्प तथा शिल्पियों के निर्माण कौशल ने संस्कृति विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया जो और कुछ नहीं विश्वकर्मा संस्कृति ही है। 
अब आइए!थोड़ा संस्कृति क्या है ? इस पर दृष्टिपात किया जाय।सर्वप्रथम हम अकृति इसके बाद कृति और सुकृति क्या है पर गहराई से विचार करेंगे तो संस्कृति अपने आप समझ में आ जाएगी ।हम एक एक करके आप का ज्ञान वर्धन करेंगे बस ध्यान दें।
पहले अकृति क्या है ? को जाने।जो कुछ नहीं बनाया गया,जो अस्तित्व में ही नहीं हैं,अकृति के अन्तर्गत आती हैं ।जैसे बेकार पड़ी लकड़ी लोहा अन्य पदार्थ मैटेरियल इत्यादि।कृति माने जो कुछ किया गया या जो कुछ बनाया गया।सुकृति-माने जो कुछ अच्छा किया गया जो कुछ सकारात्मक बनाया गया वह सुकृति कहलाती है।अकृति को सुकृति प्रदान करना,निराकार को साकार करना ही विश्वकर्मा संस्कृति कहलाती है।अनगढ़ लकड़ी अकृति हुई और जब इसे रंद कर बेंत बना दिया तो वह कृति हो जाती है और ऐसे ही तमाम लकड़ियों की मदद से कुर्सी मेज या पलंग सोफे की रचना की जाती है उसे सुकृति कहते हैं।पूरे विश्व में विश्वकर्मा संस्कृति को पाँच ब्रह्मर्षियों क्रमश:मनु मय त्वष्टा शिल्पी दैवज्ञों ने ही स्थापित किया।मनु द्वारा लौह कर्म,मय द्वारा काष्ठ कर्म,त्वष्टा द्वारा ताम्र कर्म,शिल्पी द्वारा शिल्प कर्म यानि पत्थरों और मूर्तियों के कार्य और दैवज्ञों द्वारा स्वर्ण रजत धातु कर्म सम्पादित करने का ज्ञान उक्त विश्वकर्मा ऋषियों द्वारा समाज को दिया गया।
जिन भावों से,सृजनात्मकता द्वारा,सृजन सर्जन होता है,निराकार को आकर दिया जाता है,वही विश्वकर्मा की शक्ति होती है।प्रलय काल के बाद जो भी सृष्टि की रचना हुई वह सब भगवान विश्वकर्मा की ही कृपा से संभव हुआ है।इसीलिए उन्हें वेदों,ग्रंथों,उपनिषदों में सृष्टि कर्ता आदि देव भगवान विश्वकर्मा कहा जाता है।भगवान विश्वकर्मा को प्रौद्योगिकी और आविष्कार के देवता के रूप में भी पूजा जाता है।शिक्षा व प्रार्थना के देवता भी भगवान विश्वकर्मा को ही माना जाता है जिन्होंने सुर और असुरों को भी नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र दिए।जैसे गणेश को अंकुश सरस्वती को वीणा लक्ष्मी को धन कलश शंकर को पिनाक और त्रिशूल,विष्णु को सुदर्शन चक्र, इंद्र को बज्र,ब्रह्मा को अक्षय पात्र कमंडल,कुबेर को पुष्पक विमान तथा देवताओं के निवास हेतु अनेकानेक पुरियों का निर्माण किया,जिसमें द्वारिकापुरी,अलकापुरी ,पांडवपुरी,लंकापुरी इत्यादि।
अब आइये!संस्कृति पर थोड़ा व्यापक प्रकाश डाला जाय।
संस्कृति क्या है?  भूषण भूत सम्यक कृति ही संस्कृति कहलाती है जिसका अर्थ होता है विकसित करना,परिष्कृत,परिमार्जित करना और संस्कारित करना सरल अर्थों में कहें तो माँजकर चमकाना,सुधारना सिद्ध व सुनिर्मित करना और अलंकृत करना होता है।वैसे समाज शास्त्रियों ने 
संस्कृति को बहुत ही व्यापक अर्थों में वर्णित किया है जिसमें रीति रिवाज,पहनावा,परंपराएँ,धर्म दर्शन ज्ञान,विज्ञान,कलायें,सामाजिक ,राजनीतिक संस्थाएँ और प्रथाओं का समावेश होता है,जिसमें किसी जातिय,धार्मिक या सामाजिक समूह के प्रथागत विश्वास,मूल्य,रूप,लक्ष्य या किसी स्थान या समय में लोगों द्वारा साझा की जाने वाली रोजमर्रा की जिंदगी की विशिष्ट विशेषताओं या जीवन शैली को समाहित किया जाता है।
संक्षेप में,समाज में,गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम संस्कृति है जो समाज के सोचने विचारने कार्य करने के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है।
संस्कृति के विकास को समझने के लिए सर्वप्रथम श्रुतिओं का सहारा लिया गया,इसके बाद भाषा का विकास हुआ,तत्पश्चात शिक्षा का योगदान हुआ,जिससे व्यक्ति अतीत व वर्तमान को जानकर भविष्य के लिए मार्ग दर्शन प्राप्त करता है।
उपर्युक्त विवेचन से अब आप सभी को स्पष्ट हो गया होगा कि विश्वकर्मा संस्कृति से ही पूरी दुनिया में ज्ञान का आलोक फैला है,फिर भी हम अपने को दीन हीन मानते हैं तो यह अपने कुल की ही कमजोरी हुई न।
मित्रों!अल्फ्रेड एडवर्ड राबर्स्ट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक विश्वकर्मा और उनके वारिस में लिखा है कि विश्वकर्मा लोग पहले से ही सभ्य और विद्वान रहें हैं।
अपने कुल पर हम सभी गौरवान्वित होना चाहिए।

विशेष अनुरोध आप सभी विश्वकर्मा संस्कृति अभियान से जुड़े।अपने विचार साझा करने हेतु मेरे मोबाइल नम्बर 9140577830 अथवा राजेश्वराचार्य जी के नम्बर 8840155008 पर सम्पर्क कर सकते हैं।

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