धर्म क्या है? विश्वकर्मा समाज का धार्मिक विकास व अपने कुल देवता के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास कितना: एक विहंगावलोकन : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा

धर्म क्या है? विश्वकर्मा समाज का धार्मिक विकास व अपने कुल देवता के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास कितना: एक विहंगावलोकन : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा 

                                                  भारत वर्ष धर्म प्राण देश है। यहाँ धरती का कण कण धर्म भावना से ओत प्रोत है।यहाँ भोग से अधिक योग और धन से अधिक धर्म को महत्व दिया जाता है।धर्म पुरुषार्थ चतुष्टय में सबसे पहला पुरुषार्थ माना जाता है जिस पर शेष तीन पुरुषार्थ अवलम्बित हैं।धर्म से ही अर्थ,काम,मोक्ष की प्राप्ति संभव है।धर्म से ही,शांति और मन को शीतलता प्राप्त होती है।धर्म मानव समाज के स्तर को उदात्त बनाने में परम सहायक होता है और उसकी संकीर्ण मनोवृत्तियों को हटाकर उसमें उदार,उन्नत और श्रेष्ठ भावनाओं का समावेश करने में समर्थ होता है।”धारयेत सो धर्म:”जिसका धारण हो,विकास हो,रक्षा हो,वही धर्म है।धर्म जीवन का धारक है।जैसे मछली के जीवन का धारक पानी है।वैसे धर्म का अर्थ-प्रेम,परहित व परसेवा है।जो व्यक्ति परहित की चेष्टा में लगा रहे,वही सच्चे धर्म का पालन करने वाला होता है।शाश्वत चैतन्यता का अनुभव ही,धर्म है,जो सबको जोड़े हुए है,जो सबकी समग्रता का द्योतक है,जो सबके व्यवहार के भीतर होता है।धर्म के सहारे पर ही इस समस्त जगत की सत्ता निर्भर है।”धर्मो विश्वस्य जगत:प्रतिष्ठा”कहा गया है।
महर्षि कणाद ने वैशेषिक दर्शन में लिखा है-यतोभ्युदय निश्रेयश सिद्धि:सधर्म:।जिससे इस लोक का उत्कर्ष अभ्युदय व परलोक का कल्याण होता है,वह धर्म कहलाता है।यानि धर्म प्राणियों के ऐहिक अभ्युदय और पारलौकिक श्रेयस में सहायक होता है।महाभारत में वेदव्यास ने कहा है कि सद्गुणों को धारण करना ही धर्म है।मनुस्मृति में महर्षि मनु ने धर्म के दस लक्षण बताते हुए लिखा है कि,धृति: क्षमा दमोस्तेयम शौच मिनीन्द्रियनिग्रह:।धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकम धर्म लक्षणम्।।अर्थात् धैर्य ,क्षमा ,मन पर नियंत्रण,चोरी न करना,त्याग,पवित्रता,इन्द्रिय संयम,सद्बुद्धि,विद्या प्राप्ति,सत्य और क्रोध न करना यही धर्म के लक्षण गिनाए गए हैं।
नहि सत्यात परो धर्म:नानृतात् पातकम परम्।सत्य से परे कोई धर्म नहीं और झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं।इसीलिए हमारे आर्ष ऋषियों ने कहा है”सत्यंबद धर्मम् चर” यानि सत्य बोलो और धर्म के मार्ग का अनुसरण करो।
मनु महाराज ने यह भी उल्लिखित किया है कि “वेदो अखिलम धर्म मूलम।” यानि वेद ही अखिल धर्म के मूल हैं।
वेद व्यास ने धर्म के बारे में कहा है कि-
श्रूयताम धर्म सर्वस्वम श्रुत्वा चैवावधार्यताम,आत्मनः प्रतिकूलानि परेशाम न समाचरेत।।
धर्म का सार सुनो और सुनकर हृदयंगम करो।वह यह है कि जो अपनी आत्मा के प्रतिकूल हो,वैसा आचरण दूसरों के साथ न करें।
आचार्य चाणक्य ने धर्माचरण को सुख का आधार कहा है।”सुखस्य मूलम धर्म:।
सदाचार: धर्म:।आचार:परमो धर्म:।आदि कहा गया है।
लेकिन आज विडंबना देखिए कि मनुष्य धर्म का फल सुख चाहता है,किन्तु धर्माचरण नहीं करना चाहता और पाप का फल दुःख नहीं चाहता,परन्तु जानबूझ कर पाप कर्म करता है।
धर्मस्य फलम चेच्छन्ति मानवा:।
पापस्य फलम नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नत:।।
धर्म मजहब के संकीर्ण दायरे में सिमटा रूढ़िवादिता और धर्मान्धता का वाचक नहीं,बल्कि वह तो पंथ,मत,सम्प्रदाय,मजहब की संकीर्णताओं से ऊपर उठ कर प्राणी मात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है।धर्म का यही सच्चा व सही स्वरूप है।
अन्य धर्माचार्यों ने भी मनुष्य के लिए सद्गुणों और धर्माचरण के महत्व को उजागर करते हुए कहा है कि धर्माचरण करने वाले मनुष्य की रक्षा धर्म स्वम् करता है।-धर्मो रक्षित रक्षितः जिसका सारांश धर्म की जो रक्षा करते हैं धर्म भी उनकी रक्षा करता है।मनुष्य का एक स्थायी मित्र धर्म है,जो उसके मृत्यु के बाद भी उसके साथ रहता है,बाकि सभी मित्र उसे श्मशान तक ले जाते हैं।वहाँ से समाप्त हो जाते हैं,अतः धर्म का पथ विकास का पथ होता है।धर्म हमे सतपथ पर चलने की प्रेरणा देता है।
विश्वकर्मा समाज पूर्व से एक समुन्नत समाज रहा है,परन्तु आज उसकी दशा बद से बदतर होती जा रही है,क्योंकि आज यह समाज अपने धार्मिक कृत्यों को छोड़ता चला जा रहा है।मांसाहार करना,गुटका खाना,बीड़ी पीना,शराब का सेवन करना आदि विकृतियां इस कुल में देखने को मिल रही है।मांसाहार करने से हममें सद्वृतियों का ह्रास होने लगता है।हम क्रोधी होने लगते हैं।बात बात में गुस्सा होने का स्वभाव बनने लगता है,और १९% शाकाहारियों की तुलना में ज़्यादा बीमार होने लगते हैं।साथियों इस धरा का सबसे बलशाली जानवर हाथी ही है;वह मांसाहारी नहीं होता,याद रखिए!मांस का भक्षण कर ,गुटका खाकर,शराब बीड़ी का सेवन कर,आप अपने अन्दर ब्राह्मणत्व नहीं ला सकते।कभी यही समाज यज्ञ आदि कराता था।जनेऊ धारण करता था।ब्राह्मणी खट कर्म यानि शास्त्र पढ़ना पढ़ाना,दान देना व लेना,यज्ञ करना और कराना क्रिया करता था,परन्तु आज विश्वकर्मा समाज उक्त कर्मों से विमुख हो गया है और दम्भ भरता है कि हम ब्राह्मण हैं भाई आप किस बात के ब्राह्मण!जब आप के कर्म ब्राह्मणोचित नहीं है।आप कहते रहिए कि हम पौरुषेय ब्राह्मण है,जन्मजात ब्राह्मण है।कौन मानने को तैयार होगा जब तक कि आप अपने आचरण की शुद्धता पर ध्यान नहीं केंद्रित करेंगे,दिनों दिन हम सभी ऐसे ही गर्त में मिलते चले जाएँगे।
यदि हम अभी भी संभलना चाहते हैं तो अपने को सदाचार के मार्ग पर चलने की कोशिश करें।इसके लिए सर्वप्रथम हम सभी को अपने कुल देवता भगवान विश्वकर्मा जी की भोजन की भाँति निश दिन पूजा आराधना का विधान अपने अपने घरों में करना होगा ।अपने पूजा स्थलों में उनकी प्रतिमा को स्थापित करना होगा ताकि हमारी संतति व आगे आने वाली पीढ़ियाँ अपने आराध्य को भविष्य में पहचान सकें उनके प्रति प्राणप्रण से जुड़े तभी हम अपने कुल को धार्मिक और आध्यात्मिक बनाने में सक्षम हो सकेंगे।
आज अपने कुल के अधिकांश लोग बुद्धिस्ट मतावलम्बी होने लगें हैं।साथियों जरा सोंचें,जिस देवता ने,सभी देवों को उपकृत किया जिसका लोहा विश्व मानता है।उस कुल देवता का परित्याग कर हम छोटे मोटे देवताओं की आराधना में प्राण प्रण से लगे हुए हैं।
वही कहावत कि-कस्तूरी कुण्डल बसे,मृग ढूँढे वन माहि, कहने का तात्पर्य कि देवों के देव महादेव भगवान विश्वकर्मा की पूजा न करना ही भगवान विश्वकर्मा जी की नाराज़गी,इस कुल पर भारी पड़ती जा रही है,और हम तो यह कहेंगें कि इसी कारण इस कुल पर भगवान विश्वकर्मा का श्राप लगा है।
कुछ भाई यह सोचते हैं कि मैंने वर्षों से फला देवता की पूजा करता आया हूँ तो कैसे अब चौथेपन में भगवान विश्वकर्मा की पूजा करें मित्रों आप अपने इष्ट देव के साथ साथ अपने कुल देवता को भी अपने पूजा गृह में सर्वोच्च स्थान दें और अपने जीवन के शेष दिनों में अपना ध्यान भगवान विश्वकर्मा की आराधना में लगाए इससे आप अपने कुल के पोता,पोती,नाती को जीवन में भगवान विश्वकर्मा की पूजा हेतु भविष्य के लिए प्रेरित करेंगे और हमारा आगामी समाज अपने प्राचीन गौरव को पाने में कामयाब होगा।
अन्त में,जरा सोंचे कि जब हमी अपने कुल के देवता को अपने जीवन में स्थान नहीं देंगें तो क्या दूसरा समाज जो आप को शुद्र मानता है,हिकारत की दृष्टि से आपको देखता है,वह आप को तरजीह देगा ;कदापि नहीं।तो आइये! आज से हम अपने आराध्य देव भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा परिवार सहित प्रतिदिन अपने घरों में शुरू करें।
क्योंकि हम सुधरेंगें तो जग सुधरेगा इस परिकल्पना को अपने जीवन में हम सभी को आत्म सात करना पड़ेगा।साथियों मेरा यकीन मानिए विश्वकर्मा समाज अब तक ३६ मामले कोर्ट में दायर किया और उन सबमें न्यायालयों के फैसले आये हैं कि यह कुल सर्वश्रेष्ठ कुल है।

लेखक:पूर्व जिला विकास अधिकारी, कई पुस्तकों के प्रणयन कर्ता कई राज्य स्तरीय सम्मानों से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार, मोटिवेशनल स्पीकर,आल इंडिया रेडियो वाराणसी का नियमित वार्ताकार शिक्षाविद और सामाजिक चिंतक और अखिल भारतीय विश्वकर्मा ट्रस्ट वाराणसी का मुख्य मार्ग दर्शक एवं विश्वकर्मा ट्रस्ट सोनभद्र के स्वास कार्यक्रम का संरक्षक है।

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