शिल्प कर्म,पूरी दुनिया में सभ्यताओं और संस्कृतियों का उद्गम स्रोत
डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
शिल्प कर्म के अधिपति व शिल्प ज्ञान के प्रवर्तक भगवान विश्वकर्मा को माना जाता है।भगवान विश्वकर्मा की समस्त रचनाएँ लोकहितकारिणी रही हैं,इसीलिए वे सभी पंथों,सम्प्रदायों,वर्गों में सम्पूज्य देवता के रूप में आदर पाते हैं,और विभिन्न शिल्प कर्म के प्रणेता के कारण ही उन्हें शिल्पेश्वर की भी संज्ञा दी गई है।शास्त्रोक्त प्रमाण है कि भगवान विश्वकर्मा ने शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख धाराओं में विभाजित करते हुए के अपने पाँच ऋषि पुत्रों को विभिन्न शिल्प कर्मों में प्रशिक्षित व दीक्षित किया जो मनु,मय,त्वष्टा,शिल्पी ,दैवज्ञ कहलाए।मनु लौह कार्य में मय काष्ट कर्म त्वष्टा ताम्र कर्म कास्य कर्म शिल्पी मिट्टी व पत्थर के कर्म व दैवज्ञ विभिन्न प्रकार के रत्न आभूषणों को बनाने में दक्ष माने जाने लगे।इसका प्रमाण स्कन्द पुराण में भी उल्लिखित है।
स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में विश्वकर्मा देव के वंशजों में प्रथम मनु विश्वकर्मा-जो सानग गोत्र के कहे जाते हैं।ये लौह कर्म के उदगाता कहलाए।सनातन ऋषि मय -ये सनातन गोत्र के कहे जाते हैं ;जो काष्ठ कर्म के उद्गाता माने जाते हैं।अहभून ऋषि -जिन्हें त्वष्टा भी कहा गया है;जो ताम्र कर्म के उत्पन्नकर्ता माने गए हैं।इनका गोत्र अहंभन होता है।प्रयत्न ऋषि -जिनका गोत्र प्रयन्त है,जो शिल्प कला के अधिष्ठाता माने गए;इन्हें संगतरास,मूर्तिकार भी कहा जाता हैं।दैवज्ञ ऋषि-जिनका गोत्र सुपर्ण है,जो स्वर्णकार के रूप में जाने जाते हैं।
पद्म महापुराण भूखंड/अ॰29/21 में उल्लिखित है कि,,,
गृहं यंत्राम रथो भूषा प्रतिमा वसनादिकम।
यत् किंचित् दृश्यते चित्रम तत्सर्वम विश्वकर्मजम।।अर्थात् गृह,यंत्र,रथ,भूषा,प्रतिमा एवम् वस्त्र आदि,जो कुछ भी चित्र बस्तु दृश्यमान है वह सभी भगवान विश्वकर्मा के शिल्प व शिल्प विज्ञान की ही देन है।कालान्तर में यही शिल्प कर्म लोगो का व्यवसाय बन गया और कार्य विशेष करने वालों को यन्त्रकार,रथकार,रत्नकार,वस्त्रकार,कुम्भकार,लौहकार,वास्तुकार कहा जाने लगा जिन्हें बाद में एक जाति समूह में बाँट दिया गया जो बाद में जाति व्यवस्था में परिणति हुई।
शिल्प कर्म ही व्यक्ति की कल्पना,रचनात्मकता,कुशलता और सृजनात्मकता को विकसित करने का अवसर देता है।प्राचीन काल में शिल्प कर्म करने वालों को शिल्पी ब्राह्मण,पांचाल ब्राह्मण भी कह कर पुकारा जाता था,क्योंकि शिल्पी ब्राह्मण ही यज्ञ की वेदियाँ नाप तौल कर बनाते एवम् यज्ञ कराने का कार्य सम्पादित किया करते थे,जिन्हें यज्ञहोता भी कहा जाता था,उन्हें ऊँचा स्थान समाज में प्राप्त था।स्कन्द पुराण के ब्राह्मण खण्ड में वर्णित है कि
“विप्र कोटि सहस्त्राणाम विप्र शिल्पी प्रतिष्ठितः।”अर्थात् एक करोड़ विप्र ब्राह्मणों में एक शिल्पी ब्राह्मण सम्मानित किया जाता है
अब आइये !शिल्प क्या है ?उस पर प्रकाश डालें ।
शिल्प सामान्यतः जिस कर्म के द्वारा एक पदार्थ या विभिन्न पदार्थों को मिलाकर एक नवीन पदार्थ या स्वरूप तैयार किया जाता है उस कर्म को शिल्प कहते हैं।जो प्रतिरूप है उसे भी शिल्प की संज्ञा दी जाती है।अपने आप को शुद्ध करने वाले कर्मों को भी शिल्प के अन्तर्गत गणना की गई है।यजुर्वेद में देवताओं के चातुर्य को शिल्प कहकर सीखने का भी निर्देश है।कला कौशल चालाकी युक्ति भी शिल्प कहलाती है।शिल्प का मतलब कौशल तकनीकी ज्ञान व दक्षता से भी लिया जाता है।किसी चीज के निष्पादन की क्षमता भी शिल्प कला ज्ञान को कहते हैं।
वाल्मीकि रामायण,स्कन्द पुराण व दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित संस्कार विधि में,शिल्प कर्म को यज्ञ कर्म भी कहा गया है।शिल्प कर्म से नाना प्रकार के निर्माण कार्य किए गए जिससे सभ्यताओं और संस्कृतियों को पनपने का मौक़ा मिला।
अगर आप मनन चिंतन करें तो पाएँगे कि पूरा संसार ही शिल्प कर्म से ही आजीविका कमाता है।लोगों की जीविका शिल्प व शिल्प विज्ञान पर आधारित है।यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सर्वप्रथम भगवान विश्वकर्मा के वंशज धीमान ब्राह्मणों के द्वारा करीब 12000 प्रकार के शिल्पों के आविष्कार से,पूरी दुनियाँ में अनेकानेक सभ्यताओं और संस्कृतियों को उत्पन्न करने में मददगार साबित हुआ।इससे पूर्व पाषाण युग में जब प्राइमेट्स का विकास हो रहा था उस समय पत्थरों के औजारों का निर्माण भी हमारे इसी वंशजों द्वारा ईजाद किया गया।प्राइमेट्स,से जब होमोशैपियन पूर्ण मानव बना,तब कृषक संस्कृति को बढ़ावा देने में हमारे वंशजों ने खुरपी,हल,कुदाल इत्यादि यंत्रों का निर्माण किया;जिससे मानव मात्र को भोजन का स्थायी प्रबन्ध हो सका।पानी में यातायात हो या मार्गों पर परिवहन की सुविधा हो उसके लिए नाव एवम् पहियों का आविष्कार भी इसी कुल के दक्ष लोगों द्वारा किया गया,जिसे रथकार कहा जाता था, जिसके खोज से सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का मुकम्मल इंतज़ाम हुआ।वस्त्र निर्माण एवम् अनेकानेक धातुओं की खोज भी हमारे कुल के धातु कर्म में माहिर कारीगरों द्वारा की गई,जिससे बड़े बड़े उद्योग धंधों को गति मिली।विश्वकर्मा कुल के जेम्स वाट द्वारा ही भाप का पहला इंजन बनाया गया।जिससे रेलवेज़ द्वारा विश्व में यातायात व्यवस्था को उन्नत करने में मदद काफ़ी मदद मिली।विमानों,वायुयानों का निर्माण से लेकर कल,कारखानों के निर्माण हमारे ही कुल के सिद्ध हस्त यंत्रकारों द्वारा किया गया,जिससे औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ।आनन्द कुमार स्वामी जो तमिल मूल के भारतीय चिंतक थे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक”The indian craft man”जो 1909 में लन्दन से प्रकाशित हुई है में लिखा है कि भारतीय शिल्पी की साधना ने उनका ध्यान ज़्यादा आकर्षित किया है वे लिखते हैं कि विश्व या देव ब्राह्मण ही विश्वकर्मा ब्राह्मण हैं जो पांडित्य कर्म काण्ड स्वम् करते हैं।मैसूर में इन्हें पांचाल ब्राह्मण कहा जाता है।
वेस्टर्न विद्वान अल्फ्रेड एडवर्ड रॉबर्ट्स ने भी अपनी पुस्तक “Vishwakarma and his descendant “ में लिखा हैं कि विश्वकर्मा लोग पहले से ही सभ्य और विद्वान होते हैं।यह पुस्तक भी 1909 में ही प्रकाशित हुई थी;जिसे श्रीलंका में सीलोन विश्वकर्मा यूनियन के सुअवसर पर प्रस्तुत किया गया था।इतना ही नहीं 1926 में ज्वाला प्रसाद मिश्र जो एक प्रसिद्ध व्याख्याता,धर्मोपदेशक,इतिहासकार और साहित्यकार थे ;ने अपनी पुस्तक”जाति भास्कर” के पृष्ठ संख्या 202-207 में उल्लेख किया है कि शिल्प कर्म ,ब्राह्मण कर्म है।उन्होंने शिल्प कर्म को ब्राह्मण कर्म मानते हुए विश्वकर्मा को ब्राह्मण माना है।
उपरोक्त विवेचन से हम सभी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि शिल्प कर्म और शिल्प विज्ञान के द्वारा ही विश्व में सभ्यताओं और संस्कृतियों का सृजन हुआ जिसके मूल में विश्वकर्मा वंशियों का
ही योगदान रहा है।
लेखक: पूर्व ज़िला विकास अधिकारी,कई राज्य स्तरीय सम्मानों से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार,मोटिवेशनल स्पीकर,कई पुस्तकों के प्रणयन कर्ता,ऑल इंडिया रेडियो के नियमित वार्ताकार,सामाजिक चिंतक व अखिल भारतीय विश्वकर्मा ट्रस्ट के मुख्य मार्गदर्शक है।