आवरण (कविता)

आवरण  (कविता)

कभी अत्यावश्यक हो जाता,
कभी हानि का बनता कारण।
प्रायः परिणाम भयंकर मिलता,
आओ सब मिल करें निवारण।

सच्चाई का ओढ़े आवरण,
गलत कार्य तो होते आए।
दुनियां को दिखाया गलत मार्ग,
सच्चे लोग मुँह की खाए।

पांडवों का बड़ा हितैषी,
शकुनि ने स्वयं को सिद्ध किया।
असत्य ने सत्य को रोका,
पांडवों को सदा धोखा ही दिया।

खोल पहनकर शुभ चिंतक का,
रावण ने एक खेल रचाया।
मां सीता को देख अकेले ,
कपटी साधू का वेश बनाया ।

उत्तम शिक्षा प्रदायक बनकर,
कितने रचें स्वार्थ का धंधा।
रक्षक बन समाज को लूटें,
जग प्रसिद्ध उनका सब धंधा।

वस्त्र, पर्दा ,लज्जा भी,
बड़े उपयोगी चर्चित आवरण।
व्यक्ति की कीमत बढ़ाएं,
व्यक्तित्व का करें संरक्षण। 

असत्य का चोला पहनकर,
कभी किसी को नहीं सताएं।
होकर दर्पण सम पारदर्शी,
जैसे हों खुद को वही दिखाएं।

कवि - चंद्रकांत पाण्डेय,
मुंबई, महाराष्ट्र, 

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