आर्ष ऋषियों द्वारा प्रतिपादित जीवन जीने की आचार संहिता

आर्ष ऋषियों द्वारा प्रतिपादित जीवन जीने की आचार संहिता         
हमारा देश ऋषि प्रधान देश रहा है| इस देश में समय समय पर अनेकानेक विश्रुत विद्वान,सन्त,मुनि,तपस्वी ,महापुरुष हुए हैं;जिन्होंने मानव जीवन जीने की कला सिखाई।जिससे ब्रह्माण्ड के सभी जीव जन्तुओं की रक्षा सुरक्षा हो सके,उनके द्वारा प्रतिपादित जीवन की आचार संहिता में कुछ महत्व पूर्ण Code of Conduct निम्नानुसार वर्णित हैं जिसमें पहला सिद्धांत,हिंसा(violence)न करना-हिंसा किसी भी समाज में वर्जित माना गया है।”मा हिंसायति सर्वभूतानि ” यानि किसी जीव की हत्या न करें।आज लोग छोटे छोटे जीवों की कैसे हत्या कर उनका मांस भक्षण कर रहे हैं और अपने बच्चों और परिवार के साथ भी होटलों में हड्डियां चूसते हैं।यह कदापि उचित नहीं है।प्रकृति ने हमें  तमाम पदार्थ उपलब्ध किए हैं जिससे हम मिनरल्स विटामिन प्राप्त कर सकते हैं।मित्रों बायोलॉजिकल प्रमाण है कि जिन जन्तुओं की आँतें लम्बी होती हैं वे शाकाहारी होते हैं।मानव की भी आँतें लगभग 30’ लम्बी होती हैं अतःयह सिद्ध है कि हमारे पूर्वज शाकाहारी थे।वही जिन जीव जन्तुओं की आँतें छोटी होती हैं वे माँसाहारी होते हैं जैसे- बिल्ली, कुत्ते ,शेर, सियार , सिंह, लोमड़ी ,भेड़िया आदि।
दूसरा सिद्धांत झूठ(lie)न बोलना यानि सत्य बोलना”सत्यं वद धर्मम् चर”का सिद्धांत।जीवन में हम सभी को सत्य बोलना चाहिए।झूठ नहीं बोलना चाहिए।क्यों कि झूठ के पाँव नहीं होते। सत्य बोलने को सबसे बड़ा तप माना गया है।कबीर दास जी ने कहा है-साँच बराबर तप नहीं,झूठ बराबर पाप।अर्थात् सत्य बोलने से बड़ा कोई तप नहीं होता और झूठ बोलने से बढ़कर कोई पाप नहीं कहलाता है।
तीसरा सिद्धांत चोरी( stealth) न करना।जीवन जीने का मौलिक तरीक़ा चोरी न करना है।बिना बताए किसी का सामान ले लेना चोरी कहलाता है।यदि हम किसी के विचारों को भी अपने नाम से कहीं छपवाते हैं तो भी यह  चोरी कहलाती है,this is also a kind of theft..
चौथा सिद्धांत कुशील(sextual perversion)न होना।व्यभिचारी न होना।मतलब दूसरों की बहन बेटियों को अपनी बहन बेटी समझना। हमारे वेदों में वर्णित हैं।”मातृवत् परदारेषु”यानि दूसरी स्त्रियों को अपनी माँ के समान समझना चाहिए।वही दूसरे के धन दौलत को मिट्टी का ढेला समझना चाहिए ;जिसके लिए हमारे ऋषियों ने “लोष्ठवत् पर द्रव्येषु”का सिद्धांत दिया है।
चौथा सिद्धांत परिग्रह(hoarding/possesion)। ज़रूरत से ज़्यादा चीजों का  संग्रह न करना।मित्रों प्रकृति ने सभी की जरूरतों को पूरा करने हेतु हमे संसाधन उपलब्ध कराया है।फिर भी लोग लालच में पड़कर सात पुश्तों के लिए धन सम्पत्ति इकट्ठा करते हैं।
अगर सही माइने में देंखें तो उक्त सिद्धांतों पर ही विश्व के सभी क़ानून,कोर्ट,पुलिस बनें हैं।जिसमें हिंसा न करना।चोरी न करना।झूठ न बोलना।व्यभिचार न करना।जरूरत से ज़्यादा सामान इक्कठा न करना।मादक पदार्थों का सेवन न करना ही आता है।
भगवान बुद्ध की शिक्षाओं में मादक पदार्थों का सेवन न करने का भी सिद्धांत उल्लेखनीय हैं।
भगवान बुद्ध ने चित्त शुद्धि को मन को शुद्ध रखने का और व्यवहार को अच्छा बनाने के लिए सदाचार की शिक्षाओं का प्रचार प्रसार किया।उनका कहना था कि ये दोनों चीजें मानवता के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।मन के स्तर पर आत्मशुद्धि और व्यवहार के स्तर पर सदाचार का पालन करना।जिसे सदाचार:परमो धर्म: कहा गया है।
हमारे आर्ष ऋषियों ने अपने समान दूसरों को भी जानने के सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहा है कि”आत्मवत् सर्वभूतेषु”यानि अपने ही आत्म की तरह दूसरों को जानें।ऋषियों ने यह भी हिदायत दी है कि”आत्मनः प्रति कुलानि परेशाम न समाचरेत” कहने का तात्पर्य कि जो आप की आत्म को अच्छा न लगे वैसा व्यवहार दूसरों के साथ न करें।इसे मानव धर्म भी कहा जाता है।वही हमारे वेद कहते हैं कि हमे 
“मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे” अर्थात् सबको मित्र की स्नेहसनी आँख से देंखने का प्रयास करना चाहिए।
वही एक सिद्धांत और देंखे”सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया” यानि सभी सुखी हों और सभी निरोगी हों ऐसी कामना हमारे ऋषियों की,सन्तों की,तपस्वियों की,रही है।
साथ ही “वसुधैव कुटुम्बकम्” का भी उद्घोष हमारे आर्ष ऋषियों का रहा है;जिसका मतलब पूरी वसुधा ही हमारा परिवार है।
इससे भी आगे बढ़कर हमारे वेद कहते हैं” कृण्वन्तो विश्वमार्यम”जिसका अर्थ विश्व के सभी लोगों को श्रेष्ठ गुण कर्म स्वभाव वाले बनाओ।
पूरी सृष्टि में मानवता के लिए हमारे आर्ष ऋषियों ने निम्नांकित प्रार्थना भी उल्लेखित किया है।
ॐ सनगच्छध्वम संवदध्वम,सन् वो मानांसि जानताम।
देवा भागम यथा पूर्वे,संजानाना उपासते।।
जिसका मतलब होता है हम सभी प्रेम से मिलकर चलें।मिलकर बोलें और सभी ज्ञानी बनें।अपने पूर्वजों की भाँति हम सभी कर्तव्यों का पालन करें।
मित्रों!यदि हम सभी उक्त का विवेचन करें तो पायेंगे कि जाति व्यवस्था बाद में जोड़ी गई जो विघटनकारी विचारधारा रही है।हमारे पवित्र हृदय के सन्तों,महात्माओं में आज भी उक्त सिद्धांत देखने को मिलते हैं और कहते भी हैं कि सन्त न देंखें जात कुजात।और जो पाखंडी हैं,जिनका मन मलिन है,जिनको कोई सिद्धियाँ नहीं मिली वह वापस गृहस्थ आश्रम में भी नहीं जा सके;उन्होंने समाज को बाँटने का कार्य किया,जिसे वह परम पिता उन्हें जन्म जन्मांतर तक रौरव नरक में ही स्थान देगा।क्योंकि जो विभेद पैदा करे जातियों को पूछे वह सिद्ध पुरुष महात्मा हो ही नहीं सकता।
साथियों आप ने सुना होगा कि निराश होकर ए पी अबुल कलाम साहब आत्महत्या करने को जा रहे थे;परन्तु एक सन्त ने ही उन्हें ऐसा करने से रोका और बाद में वे मिसाइल मैन कहलाए और देश के अति प्रतिष्ठापरक पद राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए थे।

   : डॉक्टर दयाराम विश्वकर्मा

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