विश्वकर्मा वंशियों के,ध्वजा का रूप,रंग,आकर कैसा? शास्त्रोक्त विवेचन : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
ध्वज, पताका, प्रतीकों का प्रचलन प्राचीन काल से होता रहा है । ध्वज किसी देश, सेना, संस्था या समुदाय के प्रतीक के लिए प्रयोग में लिया जाता रहा है। दुनिया के प्राचीन ध्वजों में विश्वकर्मा ध्वज का महत्व अत्यधिक रहा है। श्रीलंका में विश्वकर्मा वंश हनुमान जी का चित्रांकित ध्वज प्रयुक्त करता रहा,विश्वकर्मा ध्वज का चित्र सुलभ सन्दर्भ हेतु दिया गया है; जिसका अवलोकन पाठक स्वम् कर सकते हैं।तत्समय पुरोहित व कोषाध्यक्ष विश्वकर्मा ब्राह्मण ही होते थे और राज्यों का राज्याभिषेक भी इन्हीं ब्राह्मणों के द्वारा सम्पन्न किया जाता था।सिलोन राज्य के रॉयल मेडिकल अस्पतालों के प्रभारी भी यही विश्वकर्मा ब्राह्मण ही हुआ करते थे।विश्वकर्मा ब्राह्मणों की शोहरत उस समय ज़्यादा थी।राजवंशों के पतन के बाद विश्वकर्मा ब्राह्मणों के भी पतन का दौर शुरु हो गया,जिससे कालान्तर में हनुमान जी का चित्र लगा ध्वज का अस्तित्व भी समाप्त हो गया।
ध्वज एवं पताका एक दूसरे के पर्यायवाची समझे जाते हैं;परन्तु इनमें थोड़ा अन्तर होता है।पताका साज सज्जा के लिए प्रयुक्त होते हैं,जब कि ध्वज में स्तम्भ/दंड एवं झंडे दोनों आते हैं।झंडों पर प्रतीक चिह्नों का भी प्रयोग होता रहा है।प्रतीक चिह्न में किसी जीव या प्राकृतिक चिह्न का प्रयोग किया जाता है।वैदिक और पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ऋग्वेद काल में धूमकेतु झंडे का प्रयोग खूब होता था।वैदिक ग्रंथों में पुरोहितों ने ध्वज को प्रतीक के तौर पर माना है।विष्णु धर्मोत्तर पुराण में कथा आती है कि जब सुर और असुरों में युद्ध हो रहा था तो असुरों का पलड़ा भारी देखकर देवता,भगवान नारायण के पास पहुंचते है तो नारायण ने उन्हें एक ध्वज प्रदान किया, जिससे देवताओं को विजय हासिल हुई।वाल्मीकि रामायण में शहर, शिविर,रथयात्रा व रणक्षेत्र के झंडों का जिक्र मिलता है।सनातन धर्म में भगवा,केसरिया के साथ साथ अवसर विशेष पर काला,पीला,सफेद,नीला, हरा और लाल रंग के ध्वजों का भी विवरण मिलता है।आकर के हिसाब से ध्वजों को अक्र,कृत ध्वज,केतु,वृहत्केतु और सहस्त्र केतु आदि नामों से भी पुकारा जाता था। वैदिक काल में हंस ,गरुड़,वृषभ ,सिंह ,कुम्भ,मयूर मकर,धूम,एरावत और वैजयन्ती ध्वजा का प्रयोग विभिन्न देवी देवताओं के लिए किया जाता था।पारिणी की अष्टाध्यायी में ध्वजों के प्रतीक अंक,लक्षण एवं चिन्हों के आख्यान मिलते हैं।कौटिल्य के अर्थशास्त्र में युद्ध के दौरान सेना के मनोबल को बढ़ाने हेतु ध्वजों के प्रयोग का उल्लेख मिलता है।साँची में त्रिरत्न ध्वज का उल्लेख मिलता है;जिसमें पहला बुद्ध, दूसरा संघ और तीसरा धम्म का जिक्र आता है;जिसे त्रिरत्न ध्वज की संज्ञा दी गयी थी।मौर्य काल के ध्वजों में घोड़ों के अलावा कई अन्य प्रतीक चिन्हों का प्रयोग किया जाता था।ध्वज,नगाड़े,दुन्दुभी को सैन्य गरिमा के प्रतीक के रूप में उन दिनों माना जाता रहा है ।
गुप्त काल में गरुड़ एक प्रतीक के रूप में स्थापित था,इसी कारण गुप्तकाल के सिक्कों में गरुड़ ध्वज अंकित मिलता है।अजन्ता की चित्र कला में भी अनेक चित्रों में ध्वज पताका के चित्रांकन मिलते हैं।महाभारत काल में भी कई रथी/ महारथियों के अलग अलग चिन्हों और प्रतीकों के ध्वज रथों पर स्थापित होते थे,जैसे दुर्योधन सर्प अंकित ध्वज,भीष्म ताड़ का वृक्ष अंकित ध्वज द्रोणाचार्य मृगछाल से ढंका अग्निहोत्र चिह्न का ध्वज अर्जुन हनुमान जी का चित्र अंकित ध्वज घटोत्कच गिद्ध अंकित ध्वज को अपने रथों के ऊपर टाँग कर रण भूमि में जाया करते थे।
भगवान विश्वकर्मा और उनके वंशियों की ध्वजा अति विशिष्ट पाँच रंगों में रंगी हुई चौड़ी चौमुखी होती है, जिसमें उनके पाँच पुत्रों के हवन कुंडों के प्रतीक अंकित होता है। यह ध्वज 72”लम्बा और 33”चौड़ा होता है। ध्वजा के चारों ओर सुवर्ण रंग की पट्टी से किनारे को शोभायमान बनाया जाता है।शास्त्रोक्त ढंग से निर्मित इस ध्वज में 72”ही लम्बाई क्यों रखी गई इसका कारण है कि भगवान विश्वकर्मा 64 कलाओं के ज्ञाता माने गए हैं। इस प्रकार 64+08वसु को मिलाकर 72 की संख्या आती है।इसी लिए विश्वकर्मा प्रभु व विश्वकर्मा वंशियों के झंडे की लम्बाई 72” और चौड़ाई 33” इस कारण रखी गई गई है कि ब्रह्मांड में कुल 33करोड़ देवी देवताओं का जिक्र आताहै।
अब आइये पाँच रंग की पट्टियाँ ही क्यों लगायी जाती हैं इसका मतलब हम विश्वकर्मा वंशीय पाँच भाई हैं। मनु(लौहकार),मय(काष्ठकार),त्वष्टा(ताम्रकार),शिल्पी)शिल्पकार),दैवज्ञ(स्वर्णकार)।
विश्वकर्मा प्रभु के झंडे में पाँच भाइयों के लिए मनु हेतु सफेद पट्टिका, मय के लिए नीली पट्टिका, त्वष्टा हेतु लाल पट्टिका, शिल्पी के लिए धानी(हरी)पट्टिका और दैवज्ञ हेतु पीली पट्टिका लगायी जाती है जो नाप में 72” लम्बा और 6” चौड़ी होती है जो क्रम से सिली होती है।
विश्वकर्मा वंशीय झंडे में दण्ड की तरफ़ के भाग पर ऊपर से नीचे की तरफ़ कुल पाँच रंग के विभिन्न आकार के हवन कुंड के चिह्न बनाये जाते हैं जो निम्नानुसार होते हैं।
सफेद वाली पट्टिका में पीले रंग का त्रिकोण हवन कुंड का चिह्न।नीली पट्टिका में सफेद रंग का चौकोर हवन कुंड का निशान। लाल वाली पट्टिका में धानी/हरे रंग का गोल हवनकुंड का चिह्न बना होता है इसमें बीचों बीच ॐ का निशान भी लाल रंग से बना होता है।धानी/हरे रंग की पट्टिका में नीले रंग का षट्कोण हवनकुंड का निशान और पीली वाली पट्टिका में लाल रंग का अष्टकोण हवन कुंड का निशान बना होता है।इस प्रकार का झंडा ही भगवान विश्वकर्मा को हवन के अवसरों पर,आमवस्या के दिन,माघ शुक्ल त्रयोदशी अथवा विश्वकर्मा पूजन के दिन अर्पित करना चाहिए;जिससे हम सभी पांचों भाइयों में एकता बने और हम सभी संगठित होकर अपनी ताकत का एहसास दूसरों को दिखा सकें।
- डॉ दयाराम विश्वकर्मा
सुन्दरपुर, वाराणसी