माया क्या है? जड़ और गुण या प्रकृति माया किसे कहते है; माया का संसार, एक गहन आध्यात्मिक विश्लेषण : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा

माया क्या है? जड़ और गुण या प्रकृति माया किसे कहते है; माया का  संसार, एक गहन आध्यात्मिक विश्लेषण : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा 
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माया एक जटिल अवधारणा है,जो सांसारिक वास्तविकता और हमारे ज्ञान की प्रकृति से जुड़ी हुई है।इसे एक भ्रम,अज्ञान और ब्रह्म का आवरण के रूप में देखा जाता है,जो हमे सच्ची वास्तविकता से दूर रखती है।माया हमे वास्तविकता को समझने से रोकती है।हमे ग़लत धारणाओं और विचारों में उलझाकर रखती है,इसी को मायाजाल भी कहते हैं।सांसारिक वस्तुयें माया के कारण सुखदायक प्रतीत होती हैं।प्रत्येक व्यक्ति अपने पुत्र पुत्रियों से प्रेम करता है।अथाह धन कमाता है।दिन रात परिश्रम करता है ।स्वस्थ्य और धनवान रहने की कोशिश करता है और स्वम् को अमर मानता है।यैसा मोह माया के कारण ही होता है।व्यक्ति जीवन के वास्तविक उद्देश्य ही भूल जाता है।माया व्यापक अविद्या है,जिसमें सभी मनुष्य फसें हुए हैं।हर वो चीज जो हम सुनते हैं,स्पर्श करते हैं,सोचते,बोलते और देखते हैं माया है। माया एक संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ छल से भी लगाया जाता है।यह संसार,माया का है।इस संसार में स्वर्ग और नरक बनें हैं।यद्यपि तीन तत्वों पर ध्यान देने से स्थिति और स्पष्ट हो जाएगी।ब्रह्म ,जीव और माया जिससे तीन शक्तियों का आभास होता है पहली चित्त शक्ति दूसरी तटस्थ शक्ति और तीसरी माया की शक्ति।मित्रों ईश्वर और माया की शक्ति दो विपरीत शक्तियाँ मानी जाती हैं।माया भी,भगवान की शक्ति है।ईश्वर प्रकाश है तो माया अंधकार।अंधकार,प्रकाश का ही अर्थ है।अगर प्रकाश न हो तो अंधकार का कोई अस्तित्व ही न हो।मन के माया में आते ही हमारी ऊर्जा बाहर की तरफ़ बहने लगती है,जिससे आत्मा का ज्ञान नष्ट हो जाता है और व्यक्ति संसार में बधने वाले दुष्ट कर्म करने लगता है और व्यक्ति मूढ़ता को प्राप्त हो जाता है।माया का काम ही है फ़साना।माया का अर्थ केवल धर्म से नहीं होता,जिस चीज में हमारा मन अटकता है,वही हमारे लिए माया है।जैसे किसी का मन धन में अटकता है।किसी का भोग में किसी का रूप में किसी का शब्द में किसी का स्वाद में किसी का व्यभिचारी कर्मों में किसी का अपने में किसी का अपने वालों में आदि आदि।अनेक स्थानों या किसी एक स्थान पर मन अटक जाता है वही उसके लिए माया है।जब हम किसी चकित कर देने वाली घटना को देखते हैं तो हम उसे ईश्वर की माया कह देते हैं,यहाँ माया का अर्थ शक्ति से है।जब व्यक्ति चतुराई से बस्तु को विपरीत रूप में दिखाता है,यथार्थ के अभाव में उसे दिखा देता है,यह उसकी माया कहलाती है।यहाँ माया का अर्थ मिथ्या ज्ञान है।मिथ्या ज्ञान दो प्रकार का होता है।भ्रम और मतिभ्रम।भ्रम में ज्ञान का विषय विद्यमान रहता है परन्तु वास्तविक रूप से दिखता नहीं।मतिभ्रम में बाहर कुछ होता ही नहीं,हम कल्पना को प्रत्यक्ष ज्ञान समझ लेते हैं।जैसे अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना।माया को कुछ विचारक भ्रम के रूप में देखते हैं तो कुछ इसे विभ्रम के रूप में।हममें से हर कोई कभी न कभी भ्रम और मतिभ्रम का शिकार होता है।कभी कभी द्रष्टा व दृश्य के बीच पर्दा पड़ जाता है।कभी वातावरण मिथ्याज्ञान का कारण हो जाता है,जिसे अविद्या कहते हैं ।भारत में मुख्य रूप से मायावाद का प्रसार शंकराचार्य ने किया।
ब्रह्म सत्यम्,जगत् मिथ्या।
भ्रम और अवास्तविकता हमे सांसारिक सुखों और भौतिक इच्छाओं में फ़साते हैं।अज्ञान और अविद्या जो हमे ब्रह्म ज्ञान से वंचित करता है।ब्रह्म का आवरण भी माया का रूप है।माया शक्ति और ऊर्जा का रूप है जो ब्रह्मांड को उत्पन्न और बनाये रखती है।सृष्टि और प्रलय यह ब्रह्माण्ड की मूल प्रकृति है।दोनों से माया को जुड़ा माना गया है।सत्व,रज,तम प्रकृति में माया तीन गुणों में विद्यमान रहती है।
मायावाद का सिद्धांत उपनिषदों ब्रह्म सूत्र और भगवद् गीता में प्रतिपादित है।श्वेताश्वतर उपनिषद में तीन तत्व अनादि,अनन्त,शाश्वत,एक ब्रह्म।एक जीव।एक माया।तो ब्रह्म(भगवान)जीव(आत्मा)के अलावा जो बचा वो माया।माया अज्ञान और अविद्या का प्रतीक है।समस्त सत्ता चेतनों व विचारों से बनी है।हमारे उपलब्ध ज्ञान अनुभव हम पर थोपे या आरोपित किए जाते हैं;परन्तु ये प्रकृति के आघात के परिणाम नहीं,ईश्वरी क्रिया के फल हैं।
माया के प्रकारों में पहली प्रकृति माया,यह संसार को वास्तविक और स्थायी मानने को प्रेरित करती है।जब कि यह अस्थायी और परिवर्तनशील है।मनुष्य का सांसारिक वस्तुओं से प्यार मात्र एक दिखावा एवं झूठ है,सांसारिकता केवल मोह माया है तथा क्षणिक होता है।एक दिन इसे नष्ट हो जाना है।
भूमिरायोऽनलो वायु: खं मनोबुद्धिरेव च।
अहंकार इतियम मे भिन्नाप्रकृतिरष्ट धा ।।
अर्थात् पृथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु ,आकाश ,मन ,बुद्धि ,अहंकार ऐसे आठ प्रकार के भेदों वाली तो भगवान की जड़ माया स्वरूप अपरा माया है।हमारा मन बुद्धि माया का बना है,इसलिए हमारे विचार भी माया के अन्तर्गत होते हैं।गुण माया को प्रकृति माया भी कहते हैं।मनीषी कहते हैं कि पृथ्वी लोक माया का बना है।महर्षि कुल माया के 11 लोकों की चर्चाएं की हैं।
गीता में कहा गया है कि माया ने जिसका ज्ञान हर लिया है ऐसे दुष्ट कर्म करने वाले मूढ़,नरों में अधम और आसुरी स्वभाव वाले मेरी शरण में नहीं आते।
माया का प्रभाव व्यापक है,यह जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है।अज्ञानता हमे वास्तविकता को समझने से रोकती है।दुःख माया हमे संसार की वास्तविकता को छुपाती है,जिससे हमें दुःख पीड़ा अनुभव होता है।बंधन माया हमे संसार के बंधन में बाँधती है,जिससे हमे मुक्ति और स्वतंत्रता नहीं मिलती।
मनुष्य को मोह माया के अंधकार से केवल ज्ञान ही बाहर निकाल सकता है।सच्चे ज्ञान की प्राप्ति केवल सच्चे गुरु से ही सम्भव है।
ध्यान और विचार वास्तविकता को समझने में मदद करते हैं।ज्ञान व विवेक से माया के प्रभावों से मुक्ति मिलती है।आध्यात्मिक अभ्यास से भी माया के प्रभावों को कम किया जा सकता है।आत्म साक्षात्कार भी माया के प्रभाव को कम करने में मददगार साबित होता है।
लेखक: पूर्व जिला विकास अधिकारी,कई राज्य स्तरीय सम्मानों से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार,कई पुस्तकों का प्रणयन कर्ता, शिक्षाविद,मोटिवेशनल स्पीकर,वरिष्ठ प्रशिक्षक,ऑल इण्डिया रेडियो का नियमित वार्ताकार है,जिसके नाम से शिक्षा संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोध छात्रों को डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा बेस्ट पेपर अवार्ड भी दिया जाता है।

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